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उसे बैठा देना पड़ा था। उस दिन की उसकी भंगिमा, भूलती नहीं है । पर यह साँप की घटना परेशानी में डाल देने वाली है ! • • .'
'वही तो कह रहा हूँ। विद्याध्ययन में लगेगा, तो समझ आ जायेगी इसे ।'
'मेरी तो बुद्धि काम नहीं कर रही । हर बात में तो ज्ञान बोलता है । ऐसा कि बड़े-बड़े पंडित चकरा जायें। कई श्रमण भगवन्तों के उपदेश सुने हैं, बालपन से। पर यह तो कुछ और ही बोलता है : इतना नया और अचूक कि निरुत्तर कर देता है । इसे भला कौन गुरु पढ़ायेगा ? · . .'
_ 'सो तो देख रहा हूँ, त्रिशला। पर कुछ तो करना ही होगा। गुरुकुल में रहेगा, तो वहाँ की चर्या से सम्हल जायेगा। बँधा रहेगा कुछ दिन, तो उपद्रव तो नहीं करेगा।' ____ और शुभ-मुहूर्त में एक दिन प्रातःकाल , राजसी वैभव-समारोह के साथ कुमार को पालकी में बैठा कर, विद्यारंभ के लिए गुरुकुल ले जाया गया। कुलपति ने बड़े समारम्भ और साज-सज्जा के बीच, एक विशाल कुटीर-शाला में नवस्नातक राजपुत्र का स्वागत किया। एक चंदन की चौकी पर विपुलाकार शास्त्र का बँधना खोल कर, सन्मुख नव-शिष्य को एक पाटे पर आसीन किया। मन्त्रोच्चार के साथ कुमार को तिलक-श्रीफल अर्पित कर, विद्यारंभ का सूत्रपात किया :
'बोलो युवराज, · ॐ नमो भगवते श्री अरिहन्ताय ।' बोला कुमार : 'ॐ नमो भगवते श्री महावीराय !' 'अरिहंताय बोलो, बेटे । यह भगवान का नाम है ।'
'जो भगवान नहीं देखे, उनका नाम कैसे बोलूं ? उनको नमन कैसे करूँ ? संगम देव ने जो भगवान दिखाये हैं न, उन्हीं का नाम बोल रहा हूँ, उन्हीं को नमन कर रहा हूँ...!'
हँसियों के फँवारों में कुलपति, सारा छात्र-मण्डल और राजपरिकर बह गया। थोड़ी देर में चुप्पी व्याप गई। उसे तोड़ कर, उपाध्याय शास्त्र में से पढ़कर श्लोक उच्चरित करने लगे। फिर एक-एक पद बोलकर, कुमार से उसे दुहराने का अनुरोध करने लगे।
_ 'अरे महाराज, शास्त्र में लिखे श्लोक क्या बोलना। वे तो पुराने हो गये। ज्ञान पुराना नहीं होता । मैं तो जो सामने आता है, उसे देखता हूँ, और वही बोलता हूँ। और नित नया श्लोक बोलता हूँ ! . . .'
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