________________
कुछ खास नहीं! बस यों ही।' 'हर कोई कुछ देखता तो है ही !' 'आवश्यक नहीं, माँ !' 'कुछ लिखाई-पढ़ाई चल रही है ?' 'बहुत कुछ । कुछ भी नहीं !' 'ये तो कोई बात न हुई।' 'बात तो हुई · · ·इसका अर्थ चाहे न लग सके !' 'अर्थ बिना बात कैसी ?' . 'हर चीज़ का अर्थ लगाने चलो, तो अनर्थ ही हो सकता है, मां !' 'जैसे ?' 'यही, कि पढ़ रहा हूँ, तो बस पढ़ रहा हूँ !' 'क्या पढ़ रहा है ?'
'जो सामने आ जाये ! केवल शास्त्र ही क्यों ? तुम्हारा चेहरा क्यों नहीं, जो इस क्षण सामने है ?'
'पढ़ना तो शास्त्र का ही होता है। क्योंकि उसमें ज्ञान है !'
'ज्ञान तो माँ, अपने में है, शास्त्र में कहाँ ! अच्छा ये बताओ कि मनुष्य ने शास्त्र लिखा है, कि शास्त्र ने मनुष्य लिखा है।'
महारानी जानती थीं, कि निरुत्तर होने ही आयी हैं। सो हो रही हैं ! फिर भी पूछ-ताछ कर, जी हलका करना चाहती हैं।
'अच्छा मान, पढ़ाई तो समझ गई तेरी । पर लिखाई ? कुछ लिखता भी है ?' 'अरे, कितना सारा लिखता हूँ !'
'कहाँ लिखता है ? सारे पत्र कोरे पड़े हैं । दावातें, क़लमें, स्याहियां बेचारी मुंह ताक रही हैं तेरा !'
'अरे तो क्या पत्रों पर ही लिखा जाता है ?' 'तो काहे पर लिखता है ?'
'अरे देखो न माँ, चारों ओर जो यह आकाश फैला पड़ा है। इतनी बड़ी पाटी है, और सदा सामने रहती है। पत्रे और कलम उठाने का कष्ट क्यों करूं?'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org