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जन्मजात ज्ञानेश्वर
बड़ी भोर मां सामायिक-ध्यान में बैठी थीं कि अचानक जाने कहाँ से आकर गोदी में धप से टपक पड़े लालजी।
'अरे माँ, आँखें मींच कर क्या खोज रही हो, भगवान ?' 'हाँ' - 'चुप कर अभी ।' 'अरे सुनो तो, कल मैंने तुम्हारे भगवान को देखा !' 'कहाँ देखा रे ?'
'जंगल में, संगम देव की गोद में । पहले वे साँप होकर आये। मैं सांप पर कूद पड़ा, तो साँप देव हो गया। बोला-संगम देव हूँ। मैंने उसे छकाया, तो उसने मझे गोदी ले लिया। वह जोर से पुकारने लगा : जय महावीर' ' 'जय भगवान · 'जय महावीर 'जय भगवान !'
'भगवान दीखे फिर ?'
'हां-हाँ मां : उसने समझा उसने मुझे गोदी भर लिया है। मैं तो छटक कर भाग खड़ा हुआ था। 'दूर से देख रहा था...'
'क्या देख रहा था ?' 'अरे उसकी गोदी में भगवान बैठे थे !' 'कैसे थे वे?'
'एकदम गोल । पर बड़े सुन्दर । आलथी-पालथी मारकर आँखें मींचे बैठे थे । हिलने का नाम नहीं !'
माँ की समझ-बुद्धि गुम हो गई। आत्मविभोर हो, गोदी भरे लाल को ऊपर से टक-टक निहारती रहीं।
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