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नन्हीं उँगलियों से रभस-दुलार करने लगे। लड़के-लड़कियाँ हार बांध कर, वर्तुलाकार चारों ओर घूमर देते हुए, गाते जा रहे थे, कुमार का बनाया कोई गीत । __ तभी ऊपर अन्तरिक्ष में, संजय और विजय नाम के दो चारण ऋद्धिधारी दिगम्बर मुनि, अनुलोम गति से तैरते विहार कर रहे थे। उनके मन में 'सत्' को लेकर शंका उत्पन्न हो गई थीं। सो अस्तित्व असह्य लगने लगा था। जब 'सत्' कुछ है ही नहीं, तो हम कैसे अस्तित्व में रहें? वैशाली के आकाश में तिर्यक गति से उड्डीयमान उन मुनि कुमारों की दृष्टि एकाएक, विशाल वृक्ष की फुगनी पर बैठे, राजपुत्र वर्द्धमान पर पड़ी। उन्हें एक अदम्य आकर्षण अनुभव हुआ। वे कुमार की ओर बरबस खिंचे चले आये । पल्लवों और फूलों से लिपटे उस भव्य कुमार का दिव्य प्रेमल स्वरूप देखकर, औचक ही मुनियों के हृदय की शंका-ग्रंथि खुल गई । उबुद्ध होकर वे पुकार उठे : 'सत् का साक्षात् रूप देख लिया हमने । कितनी सुन्दर, रसाल, संजीवन है सत्ता । सत्स त् सत् ! जीवन जीवन जीवन ! चिरंजीवो हे परम सत्, हे सन्मति, हे बाल भागवत, हम निःशंक हुए, सत् स्वरूप हुए, हमारे प्रणाम स्वीकारो!'
मुनिकुमारों को केवल वर्द्धमान ने देखा । पर उनकी अन्तरिक्ष-वाणी. नीचे के बालकों ने भी सुनी। वे पुकार-पुकार कर गाने लगे "जय सन्मति हे, जय जय जय।'
और यह गीत नन्द्यावर्त-प्रासाद, और कुण्डपुर में अनुगुंजित होता हुआ, दिगन्तों के पोलानों में गूंजता ही चला गया।
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