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विश्वंभरा, क्षण भर को साधारण नारी के एकान्त वात्सल्य-अधिकार से ईर्ष्यालु हो उठी । बोली भराये गले से :
'मेरा आँचल तो अब तुझे देखा नहीं सुहाता ! दूख जाती है मेरी छाती ! मेरा हाथ झटक कर
का !'
की सुन्दर बड़ी-बड़ी आँखों में आंसू देख कर कुमार गंभीर हो भर आया । चुपचाप पास आकर अपनी नन्हीं-नन्हीं कली उँगलियों से माँ के आंसू पोंछ, उसे खूब चूम-चूम लिया । और फिर माँ का मनचाहा, उसकी छाती में ढलक
गया ।
तरसती रह जाती हूँ दूबभाग जाता है। दुष्ट कहीं
फिर तृप्त प्रसन्न होकर महारानी बेटे को तरह-तरह से लाड़-प्यार, रमस - दुलार करती रहीं । एकाएक माँ का हाथ पकड़ कुमार शरारत से भौंहें नचा कर बोला :
'बस इत्तीसी बात में तुम रूठ गई, अम्मा? हो पागल है मेरी अम्मा पागल है !'
आँसुओं में घुलती हँसी से बेतहाशा हँस कर बोलीं रानी-मां :
'बोल, अब नहीं जायेगा न कहीं, मुझे छोड़ कर ?'
'समझती हूँ, लालू, सब समझती हूँ तेरे खेल ! नहीं, यहीं रहना
।'
'कभी नहीं मां, देख लेना । तुम कितनी अच्छी हो, माँ । पर पागल हो, कुछ नहीं समझतीं..!
'हो'
महारानी सच ही मन ही मन अपने अज्ञान पर लजा गईं। जानकर भी अनजान हो गईं । बोलीं :
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'मेरी अम्मा
'पर, अब तू कहीं जाना
'बापू के पास भी नहीं ? उन्हें प्रणाम करने भी नहीं ?' 'सो तो जायेगा ही । लेकिन '
...
'अच्छा-अच्छा । बहुत अच्छा । हम सब समझ गये तुम्हारे मन की बात । किसी को बतायेंगे नहीं । चुपचाप यहीं रहेंगे ।'
'चकोर, चुगलखोर कहीं का
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इस निरे सरल, पर बयाह बेटे को छलछलाती आंखों से गवं भरी-सी ताकत रह गई माँ ।
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