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________________ ६५ विश्वंभरा, क्षण भर को साधारण नारी के एकान्त वात्सल्य-अधिकार से ईर्ष्यालु हो उठी । बोली भराये गले से : 'मेरा आँचल तो अब तुझे देखा नहीं सुहाता ! दूख जाती है मेरी छाती ! मेरा हाथ झटक कर का !' की सुन्दर बड़ी-बड़ी आँखों में आंसू देख कर कुमार गंभीर हो भर आया । चुपचाप पास आकर अपनी नन्हीं-नन्हीं कली उँगलियों से माँ के आंसू पोंछ, उसे खूब चूम-चूम लिया । और फिर माँ का मनचाहा, उसकी छाती में ढलक गया । तरसती रह जाती हूँ दूबभाग जाता है। दुष्ट कहीं फिर तृप्त प्रसन्न होकर महारानी बेटे को तरह-तरह से लाड़-प्यार, रमस - दुलार करती रहीं । एकाएक माँ का हाथ पकड़ कुमार शरारत से भौंहें नचा कर बोला : 'बस इत्तीसी बात में तुम रूठ गई, अम्मा? हो पागल है मेरी अम्मा पागल है !' आँसुओं में घुलती हँसी से बेतहाशा हँस कर बोलीं रानी-मां : 'बोल, अब नहीं जायेगा न कहीं, मुझे छोड़ कर ?' 'समझती हूँ, लालू, सब समझती हूँ तेरे खेल ! नहीं, यहीं रहना ।' 'कभी नहीं मां, देख लेना । तुम कितनी अच्छी हो, माँ । पर पागल हो, कुछ नहीं समझतीं..! 'हो' महारानी सच ही मन ही मन अपने अज्ञान पर लजा गईं। जानकर भी अनजान हो गईं । बोलीं : Jain Educationa International 'मेरी अम्मा 'पर, अब तू कहीं जाना 'बापू के पास भी नहीं ? उन्हें प्रणाम करने भी नहीं ?' 'सो तो जायेगा ही । लेकिन ' ... 'अच्छा-अच्छा । बहुत अच्छा । हम सब समझ गये तुम्हारे मन की बात । किसी को बतायेंगे नहीं । चुपचाप यहीं रहेंगे ।' 'चकोर, चुगलखोर कहीं का ''''' इस निरे सरल, पर बयाह बेटे को छलछलाती आंखों से गवं भरी-सी ताकत रह गई माँ । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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