SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खिलौनों का कक्ष देश-देशान्तरों के अजूबा और चित्र-विचित्र खिलौनों से भरा है। चीन देश के रंगबिरंगे, बोलते-से गुड्डा-गुड्डी हैं। बारीक मणियों गंथी पिटारियों में तरह-तरह के रत्न के चौपड़-पासे हैं । हाथी दांत के महल हैं । चन्दन और चम्पक-काष्ठ के रथ हैं। विशाल क्रीड़ा-दालान के सिरे पर मंडलाकार लोकों, द्वीप-समुद्रों, पाँच मेरुओं, स्वर्ग-पटलों की रचनायें हैं। उनमें यथा स्थान कृत्रिम जंगलों छाये पर्वत हैं, सुनहली मछलियों से भरे पानी के सरोवर हैं, नदियाँ हैं। उनमें नन्हीं नौंकायें हैं, जिनमें डांड चलाते हुए कुमार नौकाविहार कर सकता है। कृत्रिम वनानियों में, सवार होते ही अपने आप चलने वाले हाथी हैं, हिरन हैं। सवारी करने को घोड़े हैं, और सिंह भी। ऐसी चन्द्रशिलाएँ हैं, जिनमें आपोआप पानी भर कर, सरसी बन जाती है : उसमें कमल खिलते हैं । । । कुमार का मन खेलते-खेलते , क्षण भर में ही उचट जाता है। बाहर जाना तो वजित है, सो बाहर की लम्बी गेलरी में जा खड़ा होता है। टकटकी लगाये मन ही मन हिरण्यवती में तैरता है, नौका विहार करता है । अपने को सुदूर हिमवान के बर्फानी पर्वत-शृंगों पर चढ़ता हुआ देखता है। एक दिन ऐसे ही कल्प-विहार में हिमाद्रि के एक चूड़ा-वातायन पर जा बैठा था। तभी माँ ने आकर अचानक पीछे से उसकी आँखें भींच लीं। कुमार उष्ण वत्सल हथेली का स्पर्श पाकर महल की परिधि में लौट आया : _ 'अरे छोड़ दो माँ, कैसी हो तुम भी। हमारा खेल बिगाड़ दिया। बस, तुम्हें तो प्यार और महल की लगी रहती है।' 'खेलने में तेरा मन ही कहाँ लगता है, लालू, इतने बहुमूल्य खिलौनों से भरा क्रीड़ा-कक्ष छोड़ कर, चाहे जब यहां आ खड़ा होता है। क्या देखता रहता है सारा दिन यहाँ ?' 'खेलता रहता हूँ माँ ! देखते-देखते सब खेल हो जाता है।' 'खिलौने तो सब अन्दर मुंह ताक रहे हैं । यहाँ काहे से खेलता है रे?' 'कमरे के आनमान के खिलौनों में मेरा मन नहीं लगता, मां । देखो न यहाँ तो सच्चीले पहाड़ हैं, नदियां हैं, बड़े-बड़े कमलों भरे तालाब हैं। वे पहाड़ की चोटियाँ मुझे बुलाती हैं, मुझसे बातें करती हैं। कहती हैं-मेरे पास आ, तुझे अपनी गुफाओं में बहुत-से गुप्त खजाने दिखाऊँगा । अपने झरनों में नहलाऊँगा... अच्छा मां, वहाँ एक सोनहला आठ पैरोंवाला व्याघ्र भी रहता है। · 'कहता है, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy