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वैलोक्येश्वर का अवतरण
• • इतना तन्मय और महरा ध्यान तो आज तक मुझे नहीं हुआ । देह, प्राण, मन, इंद्रियां सहसा ही एकत्रित हो गये हैं । चित्त ही एकाग्र होकर चिति हो गया है । अन्तर्मुख होते ही, देख रहा हूँ कि बन्द आंखें कहीं और ही खुल कर अपलक देखती रह गई हैं।
· · क्षण भर पहले तक में पापित्य श्रमण केशीकुमार था । अब खुली आँखों, अभी-अभी देखा है, श्रमण केशी मुझमें से निकल कर, पीठ फेरे चले जा रहे हैं। देखते-देखते वे कहीं वनान्त में ओझल हो गये। और अब अनुभव कर रहा हूँ कि मैं कोई नहीं : बस केवल एक नाम-रूप से परे शुद्ध मैं हूँ। मानो केवल दृष्टि हैं, अनुभूति हूँ। मैं भी हूँ : वह भी हूँ। दर्शक भी मैं ही हूँ : दृश्य भी में
____ बन्द आँखें भीतर खुलते ही देख रहा हूं, सभी कुछ बदल गया है । एक विराट नीरवता सर्वत्र व्याप गयी है, और उसे सुन रहा हूँ। दिशाएँ इतनी स्वच्छ तो पहले कभी नहीं हुई। जैसे दर्पणों के विश्व में संक्रान्त हो गया हूँ। तमाम चराचर इस दर्पण-गोलक में अपने को निहार रहा है । वातावरण में निर्मलता मानो एक उजली नदी-सी प्रवाहित है। होले-हौले बहती हवा में एक अद्भुत लयात्मकता की अनुभूति हो रही है । संगीत का ध्रुपद रह-रह कर कई चित्रों में उभर रहा है। रागों और रंगों में नवनूतन और विचित्र सुगंधे वाष्पित हो रही हैं।
.. 'भार की अनुभूति ही गायब हो गई है । किसी महाप्रवाह में, एक फूल की तरह हलका होकर, अनायास तैर रहा हूँ। भीतर की गोपनता में कहीं सुख का एक अनाहत सोता-सा उमड़ रहा है। और वह चारों ओर के चराचर में व्याप्त हो गया है। पहाड़, पेड़, पंछी, नदी, मैदान, तृण और कण-कण में सुख छलक उठा है । अकारण सुख । लगता है जैसे नरकों की यातनाएँ इस क्षण थम गई हैं।
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