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-- अन्तरिक्ष में कहीं एकाएक मेरा आसन स्थिर हो गया। सीढ़ियों की तरह कई भास्वर रंगों के चित्रपट-से मेरी आँखों के सामने खुलने लगे । सोलहों स्वों के अपार ऐश्वर्यशाली विस्तार मेरे सामने फैले हैं। ज्ञानवृद्ध श्रमणों के मुख से लोकान्तरों और देवलोकों के वर्णन सुने थे। मान भर लिया था, पर विश्वास नहीं जमता था। आँखों के देखने से आगे भी कुछ है : उस पर मन में विकल्प कम नहीं था। पर आज तो खुली आँखों प्रत्यक्ष जाने कितने दिव्य लोकों के वैभव देख रहा हूं।
आँखों में तैरता एक नील बिन्दु अचानक विस्फोटित हुआ। और उसकी प्रकाश-तरंगों में से एकाएक सौधर्म स्वर्ग सांगोपांग साकार हो उठा। रत्नों से जगमगाते विशाल सभागार के शीर्ष पर सौधर्म इन्द्र का सिंहासन कम्पायमान हो रहा है । प्रचण्ड प्रतापी शक्रेन्द्र का मुकुट झुक गया है । और उसी के साथ देख रहा हूँ, पंक्तिबद्ध रूप से, सोलहों स्वर्गों के तमाम इन्द्रों और देवों के मुकुट नम्रीभूत हो गये हैं । चौंक कर पुकारा सौधर्मेन्द्र ने :
'शची, मर्त्य पृथ्वी ने इस क्षण, अमरों के स्वर्ग को ललकारा है। मेरा गर्व खंडित हो गया : मेरा प्रताप भूलुण्ठित हो गया। • किसने कहा - 'ओ स्वर्गों, तुम अमर नहीं हो। अमरत्व ने मयों की पृथ्वी पर जन्म लिया है. . !'
शची काँपते सिंहासन पर डोलते इन्द्र के चरणों को पकड़ कर बैठ गई।
'स्वामी, तुम्हारे दोलायमान सिंहासन से मेरा गर्भ जाने कैसे आनन्द से रोमांचित हो रहा है । स्वर्गों की इस पराजय में अद्भुत सुख अनुभव हो रहा है।'
'शची - 'सुनो सुनो : बिना बजाये ही सारे स्वर्गों की दुंदुभियां घोषायमान हो रही हैं । सारे दिव्य वाद्य और शंख, एक स्वर में सम्वादी होकर आपोआप बज रहे हैं. - आनन्द · · आनन्द...'. _ 'किस बात का आनन्द, प्रभु ?'
'भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड की वैशाली नगरी में, त्रैलोक्येश्वर तीर्थंकर का जन्म हुआ है। सर्व चराचर के ज्ञाता, परित्राता और प्रियतम ने पृथ्वी पर अवतार लिया है। तीनों लोक और तीनों काल मर्त्य माटी में मूर्तिमान हुए हैं. • • !'
'नाथ, मेरे आँचल में क्षीर-समुद्र उमड़ रहा है· · ।'
'समस्त स्वर्गों के सारभूत ऐश्वर्य और सौन्दर्य से श्रृंगार करो, शची. . . ! हम पृथ्वी पर तीर्थंकर प्रभु का जन्मोत्सव मनाने जा रहे हैं।'
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