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अलक्षेन्द्रा के फूललों की मंजूषाएँ, आपोआप खुल कर सामने प्रस्तुत हैं। कलशाकार शीशियों में भरे द्रव स्वयमेव ही हवा में तरंगित हैं। द्वार-कक्ष में पड़ा है वह प्रकापड़ बिल्लौरी भांड । उसमें सात समुद्रों के जल, अलग-अलग सात तहों में झलक रहे हैं। उनकी अलग-अलग रंग-प्रभाएँ साफ दीख रही हैं। दीवाल में टंगी स्फटिक मंजूषा में नीलनदी की जलधारा स्वाभाविक-सी प्रवाहित है।
पायताने कोने में निरवलम्ब खड़ी-सी वीणा मानो आज अपने आप ही, अनेक राग-रागिनियों में बज रही है । उस संगीत की गहरी और ऊँची मूर्छाओं के साथ, मेरी शैया में ये कैसे आरोह और अवरोह स्पन्दित हैं। जैसे हिण्डोलते पानियों के गहरावों में लेटी हूँ। कुछ भी स्थिर नहीं रह गया है । एक निरन्तर ऊमिलता के लोक में जाने कहां उत्तीर्ण हो गई हूँ।
सिरहाने की हंसतूली अवकाश में यह कैसी बारीक चित्रकारी-सी कर रही है। वस्तुमात्र उसका रंग-चषक बन गई हैं। 'अलक्ष्य शून्य में से रेखायें उभर रही हैं । वर्तुल बनते-बनते, चौकोर हो जाते हैं, चौकोर षट्कोण हो जाते हैं। षट्कोण सहस्त्र कोण हो जाते हैं । एक वृहदाकार हीरे के सहस्र पहलुओं में द्वार के पार द्वार, वातायन पर वातायन, आंगन के पार आंगन खुलते ही जा रहे हैं और फिर एक अन्तहीन स्फटिक का दालान : हजारों खम्बों की सरणियाँ । छोर पर एक अथाह जलिमाः नीलिमा का शून्य । वीणा की रागिनी के छोर पर खुलतासा । मेरी प्रतीक्षा का सीमान्त ! • • .
कौन आने वाला है ? · · कौन · · कौन · · कौन ? आओ न. 'आओ ! चिरकाल से तुम्हारी राह बन कर बिछी हूँ। - 'अणु-अणु में तुम्हारी नीरव पदचाप सुनी है । तुम्हारे आने और न आने का अन्त नहीं । मेरे ही भीतर की शुद्ध ऊर्मिलता के सिवा और क्या हो तुम? आज उसे नग्न, अपने भीतर उभरती देख रही हूँ। ओ शुद्ध परिणमन, आकार धारण करो मेरी बाहों में · · ·आओ. . . आओ तुम !
'प्रियकारिणी · · !'
दूर के पानियों पर से आती आवाज़ सुनकर मैं जागी । सामने के इन्द्रनील पयंक की कचनार शैया में महाराज अध लेटे हैं । यह सम्बोधन आज कितना गहरा और एकान्तिक है।
'स्वामी' ! आ गये !'
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