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ओ मेरी देह के सारांश
आकाश की बहती नीलिमा में से, जैसे किसी शिल्पी ने तराश दिया हो, ऐसा पारदर्शी लगता है यह कक्ष । और मानो लहरों से निर्मित शैया पर लेटी हूँ ।
दूरियों में आती हुई कई विचित्र वाद्यों की समन्वित सुरावलियाँ | शंखध्वनियाँ और शहनाइयाँ । पानीली गहराइयों में, शंख में गरजता एक पूरा समुद्र । गहराती हुई एक मंद गभीर संगीत की रागिनी । सारे वातावरण में व्याप रही, नृत्य की तालबद्ध झंकारें | वनराजियों के पल्लव - परिच्छद में यह कौन सारा दिन लयकारी और चित्रसारी करता रहता है ।
उस रात स्वप्न देखकर जागी तब से मानो सपनों के देश में ही जीना चल रहा है। मेरे आसपास केसरिया कौशेय पहने, जाने कितनी सारी बालाएँ सदा घिरी रहती हैं । एक ही रूप के साँचे में ढली हैं, ये सब सुन्दरियाँ । इनके शरीरों में से विचित्र फूलों की-सी महक आती है । माँ आजकल वैशाली से आयी हुई हैं । इन लड़कियों के बारे में उनसे जिज्ञासा की थी । मेरे विस्मय का समाधान करते हुए वे बोलीं :
'येदिगन्तों से आयी हुई छप्पन दिक्कुमारियाँ हैं, लाली ! देवलोक ने इन्हें तेरी सेवा में नियुक्त किया है ।'
'देवलोकों की बात कहानियों में ज़रूर सुनी है । पर धरती पर, और वह भी मेरी सेवा में देवियाँ आ गयी हैं ! विचित्र लगता है न । और तो कहीं ऐसा देखा-सुना नहीं, माँ ! '
'देख लाली, हमने देखा-सुना ही कितना है । जितना देख पाते हैं, क्या वही सब कुछ है ? श्रमण प्रीतिकर ने एक बार बताया था : जाने कितने ही हैं, लोक-लोकान्तर हैं । जाने कितने ही वैभव, विभूतियाँ, सौंन्दर्य और आश्चर्य लोक में जहाँ-तहाँ विद्यमान हैं। हमारा ज्ञान सीमित है । इन्द्रियों से जितना हम
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