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'क्यों चुप हो गये ? कहो न, क्या रहस्य है, सपनों की इस माया भरी अलौकिक यात्रा का?'
फिर भी वे मुस्कुराते हुए, चुपचाप बड़ी देर तक एकटक मेरा मुख देखते रह गये। मैं लाज से ढलकी पलकें मात्र हो रही। फिर धीरे से मेरी बाँहों को सहलाते हुए वे बोले : 'आत्मन्, आज की रात, हम दो नहीं रहे । संयुति का यह सुख अकथ्य है। · · 'तुम्हारी कोख धन्य हो गई। केवल एक देश और काल का नहीं, त्रिलोक और त्रिकाल का चक्रवर्ती तुम्हारे गर्भ में आया है।'
'नाथ, समझ नहीं पा रही, कुछ भी।'
'वही है पर्वत से पर्वत तक छलांग भरता सिंह ! वही है मर्यादा तोड़कर बहता महासागर। वही है सुमेरु शृंग पर प्रतीक्षमान हीरक सिंहासन का, आगामी अधीश्वर। वही है निधूम वन्हिमान अग्नि-पुरुष! लोक के समस्त दुःखों का ध्वंसक : धर्मचक्रेश्वर ! . . ."
'मेरे देवता. . .' . 'तीर्थंकर की भावी जनेता को, सिद्धार्थ प्रणाम करता है।'
अपने पदनख पर झुक आये उनके भाल को, मैंने बाहों में थाम, अपनी भरभर आयी छाती से सटा लिया।
• दूरियों में ये कैसी जयकारें सुनायी पड़ रही हैं।
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