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'उसके असह्य उत्ताप से व्याकुल होकर मैंने अपनी दोनों हथेलियों से अपने वक्ष मण्डल को कस कर आच्छादित कर लिया। तो क्या देखती हूँ कि वे मेरे उरोज नहीं, दो सुवर्ण के कुंभ अधर में उत्तोलित हैं, लाल कमलों से ढँके हुए।
'लो, दोनों कुम्भ संयुक्त हो गये । उस संयुति में से खुल पड़ा एक नीलमी सरोवर । उसमें क्रीड़ा करती तैर रही हैं, दो मछलियाँ । नहीं, ये तो मेरी ही लम्बी-लम्बी कान-चूमती आँखें हैं ।
'सजल हो आयीं मेरी आँखें, अपने ही सौन्दर्य के इस साक्षात्कार से । देखते-देखते, मेरा चेहरा प्रफुल्ल तैरते कमलों की केसर से पीला एक सरोवर हो गया । द्रवित सोने के जल से वह छलक रहा है ।" 'लो, वे पानी फैलते ही जा रहे हैं, निगाहों के पार । और देख रही हूँ, एक तरंगों से हिल्लोलित, विक्षुब्ध महासागर ।'' और देखते-देखते यह समुद्र, अपने तट की मर्यादा तोड़कर बह निकला है । अनर्थ ! समुद्र ने प्रकृति के नियम को भंग कर दिया । एक प्रलय की बहिया से घिर गई हूँ ।'
• डूबने ही को थी, कि मेरे लिलार का तिलक मेरु पर्वत बनकर उन्नीत हो उठा । उसके शिखर पर आसीन है एक अखण्ड हीरे का सिंहासन : वह जाने किसकी प्रतीक्षा में है । उसके पादतल में फैली हज़ारों सृष्टियाँ प्रतीक्षामान हैं ।
'अरे यह तो सिंहासन नहीं, रत्नों की रेलिंगों, वातायनों, जालियों वाला कोई स्वर्गिक विमान है, अन्तरिक्ष में तैरता हुआ । ' और भीतर वह कौन लेटी है, प्रसूति की शैया पर ।
'उस आसन्न प्रसविनी माँ के उरु प्रदेश को भेद कर उठ आया किसी नागेन्द्र का भवन | पृथ्वी- गर्भ के अनादि नागेन्द्र, अपने फणामंडल से समूचे लोक को छा कर स्वर्गों के वैभव को ललकार रहे हैं। धरती ने द्यावा को हतप्रभ कर दिया है ।
'नागेन्द्र का वह उन्नीत फणामंडल, देखते-देखते रत्नों की एक स्तूपाकार ढेरी हो गया । उसकी चूड़ा सिद्धशिला को चूम रही है : उसके पादमूल में नरकों की सात पृथ्वियाँ आनन्द से रोमांचित हैं ।
• और जाने कब, वह रत्नों का स्तूप विगलित होकर, दिक्काल व्यापी ज्वालाओं से जाज्वल्यमान हो उठा। देख रही हूँ, एक कोणाकार विराट् अग्निशिखा । भूगर्भ के हवन कुण्ड में से उठकर, व्योम में लपलपाती हुई एक निर्धूम
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