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'उत्तर नहीं मिला, देवता, भाषा में समझा नहीं सकूँगी।' 'तो मेरा स्पर्श तुम तक नहीं पहुँच सका, प्राण !'
और महाराज अंजुलि-से नम्रीभूत हो रानी को निहारते रह गये।
सोमसुधा से छलकती गहरी आँखों से त्रिशला, महाराज की उन आँखों में बेबस ढलक पड़ी।
'' - 'अँधेरी जो हो गई हूँ, शून्य । तुम्हारा दोष नहीं, अपने इस विचित्र मन से हार गई हूँ।'
'वहाँ मेरा प्रवेश नहीं ?'
"क्यों कातर हो गये ! मेरे अणु-अणु में तुम्हारा प्रवेश निर्बाध है । पर मेरी चेतना की यह ग्रंथि, किसी तरह खुल नहीं पा रही । और तुम्हें अपने भीतर लेकर भी, बार-बार मैं तुमसे बिछुड़ी ही रह गई हूँ।'
'तो सुनो, उस ग्रंथि को भेदे बिना मुझे भी चैन नहीं। . . .'
'तो और आगे आओ, मेरी वेदना के ज्वालादेश को पार करते चले जाओ! ... विश्वास रक्खो, तुम्हें जलने नहीं दंगी।. . .'
'तुम मुझे खींचती चली जाना : तुम्हारी कलाई की तनिमा, तुम्हारी मुट्ठी का मार्दव मुझे अव्याबाध कर देगा। तब तुम्हारा पूर्णकाम पुरुष, तुम जहाँ तक चाहोगी, चला आयेगा तुम्हारे भीतर ।'
'उस अथाह अन्धकार का अन्त नहीं, देवता ! मेरे छोर पर पहुँच कर, मृत्यु की खंदक में कूद जाना होगा।' . 'कूद जाऊँगा, क्योंकि तुम्हें पाकर प्रतीति हो गई है, कि मृत्यु ही जीवन का अन्त नहीं है । उस अन्धकार में भी तुम्ही हो, मृत्यु में भी तुम्ही हो, और पर पार के तट पर भी तुम्हीं खड़ी हो, एक नये सूर्योदय में ।'
'आह, अपूर्व है आज की यह रात । ग्रंथिभेद की रात ! मेरे चिर दिन के मुद्रित कमलकोश में, आज तुमने यह कैसी सिरहन जगा दी है। पांखुरी-पांखुरी में एक लोहित ज्वाला खेल गयी है ।' फूट आने को व्याकुल हो उठा है कमल । पर उसके हार्द की ग्रंथि · · · मेरे पुरुष के तेज का अन्तिम आघात चाहती है । अपूर्व है यह रात, मेरे सूर्य, जिसमें तुम उगा चाहते हो !'
. लो, तुम्हारी अँधियारी खंदक के तट पर प्रस्तुत हूँ। अपनी आँखों से एक बार कह दो : और इस मृत्यु में कूद पडूंगा ! . . . ' ___तो कद पड़ो, आत्मन् ! मैं ही वह खन्दक हूँ। ओ दिगम्बर पुरुष मुझे भेदो, मुझे पार करो और जानो कि मैं कौन हूँ. . . ? इस पार मिलन संभव नहीं !'
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