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संपादकीय
जिज्ञासा सत्यशोध का द्वार है। शोध के दो आयाम हैं- सूक्ष्म से स्थूल की ओर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर। दृश्य जगत् स्थूल हैं। जीव और जीवन के विविध रूपों को यह हमारे सामने प्रस्तुत करता है। विज्ञान और अध्यात्म दोनों का ही लक्ष्य स्थूल से सूक्ष्म
ओर गमन करना है। सूक्ष्म की दिशा में कार्य के साथ कारण की शोध की जाती है। जैन वाङ्गमय का महत्वपूर्ण सूक्त है, 'अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे ।' धीर पुरुष अग्र को भी जानें, मूल को भी जानें, बाहर को भी जानें, भीतर को भी जानें, कार्य को भी जानें, कारण को भी जानें। स्थूल जगत में होने वाले विविध क्रिया-कलापों का संचालक कौन है ? इस प्रश्न पर साध्वीश्री गवेषणाजी के किए गए विमर्श का परिणाम ही 'अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या : क्रिया' के रूप में प्रस्तुत कृति है ।
सांसारिक प्राणी का अस्तित्व विशुद्ध आत्मरूप नहीं है, आत्मा और कर्म का मिश्रित रूप है। आत्मा के सूक्ष्म स्पंदन सतत जारी है। चेतना के ये सूक्ष्म स्पंदन ही व्यक्त रूप में क्रिया हैं। सूक्ष्म - परिस्पंदनात्मक क्रिया का जगत् द्विआयामी है - पुद्गल का पुद्गल के साथ सम्बन्ध और जीव का पुद्गल के साथ सम्बन्ध । पुद्गल का पुद्गल के साथ होने वाला सम्बन्ध यहां विवेच्य नहीं । जीव का पुद्गल के साथ हो रहा सम्बन्ध भीतर को भी प्रभावित करता है, बाहर को भी प्रभावित करता है। 'मैं अकेला रहूंगा,' यह एक दार्शनिक भ्रांति तो हो सकती है, व्यावहारिक सच्चाई नहीं। सहजीवन व्यावहारिक सच्चाई है। अहिंसा सहजीवन का आधार है। इस आधार को प्राणवान बनाने के लिए इसकी सूक्ष्म व्याख्या भी अपेक्षित है। आचार के आधारभूत चार वाद हैं- आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । आत्मा है। अपने समान ही अन्य जीवों का अस्तित्व है। सभी प्राणी जीना चाहते हैं, सुख चाहते हैं, यहीं से आचार का विमर्श उद्भूत होता है । जीव का प्रतिपक्षी है - अजीव । जीव का अस्तित्व अजीव के बिना सिद्ध नहीं होता ।
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