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तरह शुद्धि में भी कोई कारण, हेतु नहीं है, बल - वीर्य - पुरुषार्थ कुछ नहीं है। नियति से ही शरीरात्मक संघात विविध पर्यायों, विवेक (शरीर के पृथक् भाव) और विधान (विधि - विपाक) को प्राप्त होते है। सबके दुःखों का नाश अस्सी लाख के महाकल्पों के चक्र गुजर जाने के बाद ही होता है। 94
उच्छेदवाद
'अजितकेश कम्बली' उच्छेदवादी परम्परा के प्रमुख है। उन्होंनें कहा- दान-यज्ञ -होम कुछ नहीं, भले-बुरे कर्मों का विपाक नहीं । न इहलोक है, न परलोक । चार भूतों
समवाय से मनुष्य बना है, मरने पर पृथ्वी धातु पृथ्वी में, पानी धातु पानी में, तेजो धातु तेज में, वायु धातु वायु में मिल जाता है। इन्द्रिय आकाश में विलीन हो जाती है। शरीर है वहां तक जीव है। मृत्यु के बाद कुछ भी अवशेष नहीं रहता। उनका अभिमत है कि आत्मा अन्य है - यह मान्यता इसलिये सही नहीं कि इस प्रकार देखा नहीं जाता। कोई व्यक्ति म्यान से तलवार, मांस से हड्डी, दही से नवनीत, तिलों से तेल, ईख से रस, अरण से आग अलग निकाल कर दिखा नहीं सकता है वैसे ही आत्मा शरीर से अलग दिखाई नहीं जाती इसलिये आत्मा का अलग अस्तित्व नहीं है। केशों का कम्बल धारण करने से उन्हें अजित केश कम्बली नाम से अभिहित करते थे| 5
अन्योन्यवाद
पकुधकात्यायन का कहना था - पृथ्वी, अप, तेज, वायु, सुख-दुःख, और जीव ये सातों पदार्थ न किसी ने किये, न करवाये। वे कूटस्थ तथा खम्भे के समान अचल हैं। वे हिलते नहीं, बदलते नहीं, आपस में कष्टदायक नहीं होते और एक दूसरे को सुखदुःख देने में असमर्थ हैं, उन्हें मारने वाला, मार खाने वाला, सुनाने वाला, सुनने वाला, कहने वाला, जानने वाला, जनानेवाला कोई नहीं। जो तेजशस्त्रों से दूसरे से, दूसरे के सिर कटवाता है, वह खून नहीं करता, सिर्फ उसका शस्त्र इन सात पदार्थों के अवकाश (रिक्त स्थान) में घुसता है, इतना ही है । "
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विक्षेपवाद
उसके प्रवक्ता आचार्य संजयवेलट्ठि पुत्र थे, उनका कहना था परलोक है या नहीं, मैं नहीं समझता। अच्छे-बुरे कर्मों का फल मिलता है या नहीं मिलता है। वह रहता है या नहीं रहता है। तथागत मृत्यु के बाद रहता है या नहीं रहता, मैं नहीं समझता। उसे विक्षेपवाद कहते है । ये आचार्य अपने आपको तीर्थंकर घोषित करते थे, उनके सहस्रों
क्रिया की दार्शनिक पृष्ठभूमि
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