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किया है। SS जीव अपने प्रयत्न से शरीर, इन्द्रिय, वर्ण और संस्थान का निर्माण करता है। गंध, रस, स्पर्श की विविध परिणति में भी उसका योगदान रहता है। 16 जीवकृत सृष्टि का नानात्व पुद्गल द्रव्य के संयोग से होता है। इसलिये जीव के निरूपण में शरीर, इन्द्रिय, वर्ण आदि का निरूपण है। जीव का वीर्य ( प्रयत्न) दो प्रकार का होता हैआभोगिक और अनाभोगिक । इच्छा प्रेरित कार्य करने के लिये वह आभोगिक वीर्य का प्रयोग करता है। अनाभोगिक वीर्य स्वचालित है। शरीरादि की रचना अनाभोगिक A से होती है। भगवती में प्रयोग परिणत के प्रकरण में निम्नोक्त परिणमनों का निर्देश किया गया है - शरीर-5, इन्द्रिय- 5, वर्ण-5, गंध-2, रस- 5, स्पर्श - 8, संस्थान 8 =5 + 5 + 5 + 2 +5+ 8 + 8 = 38 का वर्णन है।
3. मिश्र परिणमन
जीव के द्वारा मुक्त होने पर भी जिसका जीव के प्रयोग से हुआ, परिणमन बना रहता है, उसे मिश्र परिणमन कहते हैं। कटे हुए नख, केश, मल-मूत्रादि मिश्र परिणमन के उदाहरण हैं। अथवा जो परिणमन जीव के प्रयत्न और स्वाभाविक दोनों प्रकार से होता है। उसे मिश्र कहते हैं, जैसे- मृत शरीर | S8
अभयसूरि ने इसके लिए मुक्त जीव के शरीर का उदाहरण दिया है। उनके मत से औदारिकादि वर्गणा स्वभाव से निष्पन्न हैं। जीव के प्रयोग से वे शरीर रूप में परिणत होती हैं। इसमें जीव का प्रयोग और स्वभाव दोनों का योग है। सिद्धसेन गणी के अनुसार मिश्र परिणमन में प्रयोग और स्वभाव दोनों का प्राधान्य विवक्षित है। 59 अकलंक के अभिमत से प्रयोग परिणमन स्वाभाविक परिणमन भी है, किन्तु वह विवक्षित नहीं है 100
आचार्य सिद्धसेनगणी और अकलंक के अभिमत में विसंगति प्रतीत होती है। आचार्य महाप्रज्ञ ने दोनों व्याख्याओं में कार्य कारण के रूप में संगति दिखाई है। उन्होंनें मिश्र परिणमन को घट और स्तंभ के उदाहरण से समझाया है। घट के निर्माण में मनुष्य का प्रयत्न है। मिट्टी में घट बनने का स्वभाव है इसलिये घट मिश्र परिणत द्रव्य है। इसकी तुलना वैशेषिकसम्मत समवायी कारण से की जा सकती है। 1
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घट ही नहीं सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् प्रयोग परिणत द्रव्य का उदाहरण है। मोटे स्तर पर जगत् पांच प्रकार के द्रव्यों का परिणाम हैं- एकेन्द्रिय-जीवच्छरीर-परिणत द्रव्य, द्वीन्द्रिय - जीवच्छरीर-परिणत द्रव्य, त्रीन्द्रिय-जीवच्छरीर-परिणत द्रव्य, चतुरिन्द्रिय-जीवच्छरीर-परिणत द्रव्य, पंचेन्द्रिय-जीवच्छरीर-परिणत द्रव्य ।
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया
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