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अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का न उत्क्रम होता है और न व्यतिक्रम होता है। अर्थग्रहण के बाद ही विचार, विचार के बाद निश्चय, निश्चय के पश्चात् धारणा होती है। इसलिये अवग्रह पूर्वक ईहा, ईहापूर्वक अवाय, अवाय पूर्वक धारणा होती है।
चित्त और मन- साधारणतया चित्त और मन को एकार्थक माना जाता है। किन्तु ये एकार्थक नहीं है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ के अनुसार चित्त का अर्थ है- स्थूल शरीर के साथ काम करने वाली चेतना मन क्रियातंत्र या प्रवृत्तितंत्र का अंग। चित्त क्रियातंत्र का संचालक है। चित्त चैतन्यधर्मा है। मन चैतन्यरहित है, पौद्गलिक है। मन चित्त का स्पर्श पाकर चेतन जैसा प्रतीत होता है। इस प्रकार एक अचेतन दूसरा चेतन है।
सांख्य एवं योग दर्शन में जैसे चित्त और मन की अलग अवधारणा है। पातञ्जल योग-दर्शन के भाष्यकार व्यास ने चित्त के तीन रूपों का उल्लेख किया है।61 (1) मिथ्याचित्त (2) प्रवृत्ति चित्त (3) स्मृति चित्त ।
(1) मिथ्याचित्त-जिसमें रजो और तमो गुण की प्रधानता है। मिथ्याचित्त व्यक्ति को ऐश्वर्य, अधिकार, सत्ता से अधिक लगाव होता है। ___ (2) प्रवृत्ति चित्त- यह तमोगुण प्रधान है। आसक्ति, मूर्छा, मोह आदि उसकी क्रियाएं है।
(3) स्मृति चित्त- इसमें तमोगुण,रजोगुण समाप्त हो जाते हैं। वैराग्य, अनासक्ति आदि गुणों का आविर्भाव होता है।
जितने ही आवेग हैं, वे सब चित्त के ही उत्पादन है। चित्त हमारे अस्तित्व से जुड़ा हुआ स्थायी तत्त्व है। मन स्थायी तत्त्व नहीं है। उसका स्वभाव चंचल है। चित्त की अनेक वृत्तियां है।
भगवान महावीर ने आचारांग में कहा- चित्त की अनेक वृत्तियों के कारण चित्त भी अनेक हो जाते हैं।62 मनोविज्ञान में मन और उसके कार्य
मनोविज्ञान का विषय है- मन के समस्त क्रिया-कलापों का वैज्ञानिक अध्ययन। मनोविज्ञान का सम्बन्ध दर्शन और विज्ञान दोनों के साथ है। मनोविज्ञान के अन्तर्गत संक्षेप में इन विषयों को लिया जाता है।
क्रिया और मनोविज्ञान
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