Book Title: Ahimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Author(s): Gaveshnashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 459
________________ आकर्षण में विप्रतिपत्ति नहीं है। आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का अनादि संबंध है। अतः उनमें परस्पर अन्तः क्रिया स्वाभाविक रूप से चलती रहती है। यह अन्तःक्रिया ही समस्त जीव-जगत् की विविधता का मूल आधार है । जीव निरन्तर सूक्ष्म और स्थूल पुद्गलों का ग्रहण और परिणमन करता है। स्थूल पुद्गलों के ग्रहण और परिणमन के द्वारा स्थूल शरीर और सूक्ष्म पुद्गलों के ग्रहण और परिणमन से कर्मशरीर जैसे सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है। कर्म का तात्पर्य उन सूक्ष्म पुद्गलों से है जो प्रत्येक संसारी जीव के साथ उसकी प्रवृत्ति के कारण संबंध स्थापित करते हैं। श्वासोच्छ्वास, आहार, भाषा और मन के रूप में भी जीव की समस्त प्रवृत्तियों में पुद्गलों का ग्रहण और परिणमन अनिवार्य है। इस प्रकार जीव और पुद्गलों के विविध संयोगों का परिणाम ही यह सम्पूर्ण सृष्टि है। पुद्गल और जीव द्रव्य के सिवाय किसी अन्य द्रव्य में मिलने की और अनुक्रिया की शक्ति नहीं पाई जाती। जीव और पुद्गल दोनों में स्नेह गुण अर्थात् जीव में आकृष्ट करने की और पुद्गल में आकृष्ट होने का सामर्थ्य होने से उनका पारस्परिक सबंध संभव होता है। इससे सिद्ध है कि कर्म और क्रिया का गहरा अनुबंध है । भारतीय श्रमण संस्कृति के मनीषियों का उद्घोष रहा- 'जे एगं जाणई से सव्वं जाई' अर्थात् जो एक आत्मा को जानता है वह सबको जानता है। इसी प्रकार वैदिक संस्कृति का भी यह चिरन्तन संदेश है- 'आत्मनि विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति' जिसने आत्मा को जाना उसने सब कुछ जान लिया। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा असंख्य चेतनात्मक प्रदेशों का पिण्ड है। संसार दशा में उसका बाह्य स्वरूप विविधता लिये हुए है। वैविध्य आगन्तुक है। भीतर की उपज नहीं। आत्मा द्रव्य दृष्टि से एक रूप है। विरूपता पर्याय दृष्टि से है । विरूपता वैभाविक परिणति है। वह सहेतुक है और वह हेतु कर्म है। कर्म के संक्षेप में दो और विस्तार में आठ प्रकार हैं। यह चर्चा प्रस्तुत अध्याय में की गई है। यहां ध्यातव्य यह है कि जैन मनीषियों ने कर्म को न केवल सूक्ष्म जड़ तत्त्व माना है। अपितु उसे संस्कार रूप भी माना है। संस्कार को ही भाव कर्म और सूक्ष्म जड़ तत्त्व को द्रव्य कर्म की संज्ञा दी है। द्रव्य कर्म पुद्गल रूप है। उसका ग्रहण भावकर्म के योग से होता है। भावकर्म राग-द्वेषमय आत्म-परिणाम हैं। भावकर्म क्रिया से सूक्ष्मस्तर पर कर्मों का आकर्षण होता है। हर क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्यंभावी है। प्रतिक्रिया स्वरूप पुद्गलों का ग्रहण ही द्रव्य-कर्म हैं। कर्म के जितने प्रकार हैं उतने ही प्रकार की क्रिया भी है। उपसंहार 399

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