Book Title: Ahimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Author(s): Gaveshnashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 457
________________ उपसंहार जैन आगम-साहित्य ज्ञान-विज्ञान का विशाल एवं अक्षय कोश है। अन्यान्य विषयों के साथ उसमें क्रिया के संदर्भ में भी विस्तार से विचार हुआ है। यद्यपि किसी एक आगम में क्रिया का क्रमबद्ध उल्लेख नहीं मिलता, यत्र तत्र क्रिया का सूक्ष्म और गहन विश्लेषण उपलब्ध है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध में प्राप्त तथ्यों के आधार पर क्रिया के दार्शनिक एवं वैज्ञानिक स्वरूप को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। दार्शनिक परम्पराएं मानव के अस्तित्व काल से चली आ रही हैं। समय-समय पर विभिन्न धर्म एवं दर्शनों का प्रादुर्भाव होता रहा है। भगवान महावीर का युग दार्शनिक चिंतन के चरमोत्कर्ष का युग था। आत्मा और जगत् के संदर्भ में गहन चिन्तन और मनन उस समय हुआ। जैनागमों के अनुसार आत्मा, कर्म और क्रिया आदि विषयों को लेकर उस समय 363 और बौद्धों के अनुसार 63 दार्शनिक मत प्रचलित थे। इन सभी मतों को संक्षेप में चार वर्गों में बांटा गया-(1) क्रियावाद, (2) अक्रियावाद, (3) अज्ञानवाद, (4) विनयवाद। भगवान महावीर क्रियावाद के प्रबल समर्थक और प्रखर प्रवक्ता थे। क्रियावाद का आधार है- आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व। अस्तित्व की मूल कसौटी हैअर्थक्रियाकारित्वा कि जो अर्थ क्रियाकारी है, उसी का अस्तित्व है। जिसमें अर्थक्रिया संभव नहीं है उसका अस्तित्व भी संभव नहीं है। एक प्रकार से क्रिया ही किसी भी तत्त्व के वास्तविक अस्तित्व का आधार मानी गई। जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तु को परिणामिनित्य या नित्यानित्यात्मक माना गया है। जैनाचार्यों ने एकांत नित्य और एकांत क्षणिक वस्तु के अस्तित्व को अर्थक्रिया के अभाव में स्वीकार नहीं किया है। अर्थक्रिया या तो क्रम से होती है या अक्रम (युगपत्) से। चूंकि एकान्त नित्य और क्षणिक वस्तु में देशगत और कालगत दोनों ही प्रकार से अर्थक्रिया संभव नहीं है। अतः एकान्त नित्य और एकान्त क्षणिक वस्तु का अस्तित्व भी नहीं है। अर्थक्रिया का तात्पर्य प्रयोजनात्मिका क्रिया है। प्रत्येक पदार्थ कुछ न कुछ क्रिया उपसंहार 397

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