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प्रकार की प्रतिक्रियाएं भी चलती हैं। ज्ञानात्मक अनुभूति वस्तुतः वस्तु की चेतना है संवेग या संवेदनात्मक क्रिया हमारी चंचल और गत्यात्मक प्रकृति है। इसका संबंध भाव जगत् से है।
भावों का कारण मनोविज्ञान में, अचेतन मन है। फ्रायड के शब्दों में अचेतन मन संस्कारों का अक्षय कोष है। दमित इच्छाओं, वासनाओं, आकांक्षाओं का केन्द्र है। जैनदर्शन ने भावजगत् का कारण कर्मजगत् माना है, जो अचेतन है।
शरीर में स्नायविक एवं क्रियात्मक अवयवों के मुख्य तीन तत्त्व हैं - ग्राहकवर्ग, स्नायुमंडल एवं प्रभावकवर्ग। ग्राहक वर्ग के द्वारा व्यक्ति में उत्तेजना की क्रिया होती है। स्नायुमंडल द्वारा व्यक्ति का व्यवहार संचालित एवं नियंत्रित होता है। प्रभावक वर्ग प्रतिक्रिया का जिम्मेदार है। ग्राहक अवयवों का मुख्य कार्य संवेदनाओं को ग्रहण करना है। यद्यपि स्नायुमंडल का केन्द्रीय विद्युत गृह मस्तिष्क में है, किन्तु इनका जाल संपूर्ण शरीर में व्याप्त है। प्रभावक वर्ग जिसके द्वारा प्रतिक्रिया होती हैं। प्रतिक्रिया अनुभूति और व्यवहार रूप में होती है। इन्हें हम मानसिक और शारीरिक क्रिया के रूप में पहचानते हैं। कुछ आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान की परिभाषा में अनुभव और व्यवहार का प्रयोग न कर उसकी जगह क्रिया शब्द का प्रयोग किया है। तात्पर्य एक ही है। स्पष्टीकरण के लिये निम्न विभाजन पर्याप्त होगा।
क्रिया
मानसिक क्रिया (अनुभव)
शारीरिक क्रिया (व्यवहार)
चेतन अवचेतन अचेतन आन्तरिक बाह्य
मनोविज्ञान की पहुंच अचेतन मन तक ही है, किन्तु जैन दर्शन कर्म-शास्त्रीय मीमांसा में इससे आगे सूक्ष्म शरीर की चर्चा मिलती है। स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर का संवादी है। भीतरी क्षमताओं की अभिव्यक्ति के लिये स्थूल शरीर माध्यम बनता है। सूक्ष्म शरीर संस्कारों का संवाहक है। व्यक्ति के चारित्र, ज्ञान, व्यवहार, व्यक्तित्व, कर्तृत्व इन सबके बीज कर्म शरीर में निहित हैं।
मनोविज्ञान में वंशानुक्रम और पर्यावरण को चरित्र-निर्माण में मुख्य हेतु माना है। इसके अतिरिक्त कुछ संवेग या मूल प्रवृत्तियां भी जिम्मेदार मानी गई हैं।
उपसंहार
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