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पच्चीस क्रियाओं में चौबीस का सम्बन्ध साम्परायिक बंध से है। एक (ईर्यापथिक) का संबंध ईर्यापथिक से है। इसके अलावा गुणस्थान, चारित्र, गति, लेश्या, सकषायी, अकषायी आदि में किस जीव के कितनी क्रियाएं होती है इसका प्रज्ञापना पद 22 में विस्तृत विवेचन मिलता है। बंधक कर्मों को कर्म और अबंधक कर्म को अकर्म कहा है। प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म है।
अकर्म का अर्थ निष्क्रियता नहीं, सतत जागृति है। आत्म जागृति अध्यात्म का मूल लक्ष्य है। अध्यात्म का प्रवेश द्वार अप्रमत्तता है। अप्रमत्त अवस्था में क्रियाशीलता भी अकर्म है। आत्म-विस्मृति में निष्क्रियता भी बंधन बन जाती है। वस्तुतः किसी भी क्रिया का बंधन मात्र उस क्रिया पर निर्भर नहीं अपितु उसके पीछे रहे हुए राग-द्वेष एवं काषायिक वृत्ति पर निर्भर करता है। संक्षेप में वे समस्त क्रियाएं, जो आश्रव और बंध की कारण है, कर्म है और संवर- निर्जरा रूप क्रियाएं अकर्म हैं।
सूत्रकृतांग की वृत्ति में दो प्रकार की क्रियाओं का उल्लेख है 1. अनुपयोग पूर्विका क्रिया 2. उपयोग पूर्विका क्रिया । जिस क्रिया में उपयोग नहीं, तन्मयता नहीं, वह अनुपयोग पूर्विका क्रिया है। जैसे- हृदय की धड़कन, पाचन-क्रिया, आंख का झपकना आदि । इन पर चेतना का नियंत्रण नहीं है। स्वतः संचालित है। जिस पर चेतना का नियंत्रण है जो क्रिया प्राणी अपनी इच्छा से करते है, वह उपयोग पूर्विका क्रिया है। आगमों में इनको वैस्रसिकी एवं प्रायोगिकी क्रिया भी कहा है।
मनोविज्ञान में इस संदर्भ में पांच प्रकार की क्रियाओं का निर्देश है।
1. स्वत: संचालित क्रियाएं रक्त परिसंचरण, हृदय की धड़कन आदि ।
2. प्रतिवर्त क्रियाएं - छींकना, पलक झपकना आदि।
3. अनियमित क्रियाएं - बच्चे का हाथ-पैर मारना आदि।
4. मूल प्रवृत्ति जन्य क्रियाएं - मनोशारीरिक प्रवृत्ति ।
5. विचार प्रेरित क्रियाएं जो विचार से प्रेरित होकर भी विचार द्वारा नियंत्रित
नहीं।
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मनुष्य द्वारा जहां शारीरिक एवं व्यवहारिक क्रियाएं, प्रतिक्रियाएं होती हैं, वहां मन और मस्तिष्क में भी क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं का सातत्य रहता है। मनुष्य बाह्य और आन्तरिक अभियोजनाओं से उत्तेजित होकर कई तरह की मानसिक प्रतिक्रियाएं करता है। प्रत्यक्षीकरण और अनुभूति के दौरान ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक दोनों अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
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