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इस प्रकार फ्रायड से लेकर आज तक मनोविज्ञानिक इसे समझने का प्रयत्ल कर रहे हैं। फिर भी मन का विषय इतना बड़ा है कि हजारों प्रयत्नों के बाद भी उसे पूरा नहीं समझा जा सका है। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में चूंकि हमारा पर्याय का जगत् इतना बड़ा है कि उन्हें समग्रता से समझ पाना किसी एक व्यक्ति के लिए फठिन है।
मेक्डूगल ने कहा- मूल प्रवृति जन्मजात मनो-शारीरिक वृत्ति है। इसके धारण कर्ता को किसी एक विशिष्ट विषय का प्रत्यक्षीकरण करने, उनकी ओर अवधान केन्द्रित करने तथा एक संवेदनात्मक उत्तेजना की अनुभूति करने से उस विषय के विशेष गुण की संबोधना से उत्पन्न हुई होती है और उसी के अनुरूप विशिष्ट दिशा में वह कार्य करने अथवा उस कार्य सम्बन्धी प्रेरणा का अनुभव कराती हो।69 मेक्डूगल ने मूल प्रवृत्तियों में निम्न लिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है
(1) संज्ञानीपक्ष - किसी वस्तु अथवा परिस्थिति विशेष की ओर ध्यान देना तथा उसमें रूचि लेना।
(2) संवेगात्मक पक्ष- किसी संवेग का अनुभव करना।
(3) क्रियात्मक पक्ष-संवेगों प्रति विशेष प्रकार से क्रियात्मक होना। मेक्डूगल के अनुसार संवेगात्मक और भावात्मक पक्ष मूल है। मूल प्रवृत्त्यात्मक व्यवहार में ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक तीनों क्रियाएं सम्मिलित हो जाती हैं। 70 मूल प्रवृत्तियां और संवेग
मेक्डूगल ने व्यक्ति में चौदह मूलप्रवृत्तियां और उतने ही संवेग माने हैं- 21 मूल प्रवृत्तियां
संवेग पलायन
भय संघर्ष
क्रोध
कुतुहल भाव आहार-अन्वेषण
भूख पैतृक वृत्ति
वात्सल्य यूथवृत्ति
सामूहिकता का भाव विकर्षण
जुगुप्सा भाव
जिज्ञासा
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया