Book Title: Ahimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Author(s): Gaveshnashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 445
________________ काम स्वाग्रह आत्महीनता उपार्जन रचना याचना हास्य 1) 2) 3) 4) 5) 6) 7) 8) 9) कर्मशास्त्र की दृष्टि से हमारे आचरण और दृष्टिकोण का मूल मोहनीय कर्म है। यह मूर्च्छा का जनक है। मूर्च्छा से दृष्टिकोण और चारित्र प्रभावित होता है। व्यक्ति के दृष्टिकोण, चारित्र और व्यवहार की व्याख्या मूर्च्छा की तरतमता के आधार पर की जा सकती है। जैन कर्मशास्त्र में मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां हैं और उनके अट्ठाईस विपाक है। 72 मूल प्रवृत्तियों एवं संवेग के साथ उनकी तुलना की जा सकती है। मोहनीय कर्म के विपाक मूल संवेग 10) भय क्रोध जुगुप्सा स्त्री वेद पुरूष वेद नपुंसक वेद कामुकत उत्कर्ष भावना मान लोभ हीनता का भाव स्वामित्व भावना सृजन भावना दुःख भाव उल्लसित भाव भय क्रोध जुगुप्सा भाव कामुकता उत्कर्ष भावना अधिकार भावना उल्लसित भाव अरति दुःख जैन दर्शनानुसार मानसिक आवेग - उपआवेग व्यक्ति को बहुत प्रभावित करते हैं। व्यक्तित्व का सीधा सम्बन्ध आवेगों से है। आवेगों की जितनी तीव्रता होगी, व्यक्तित्व उतना ही अव्यवस्थित होगा। आवेग व्यक्ति को उत्तेजित करते हैं। उत्तेजित होते ही वह भावाविष्ट हो जाता है। फलत: उसकी विचार - क्षमता, तर्क शक्ति शिथिल हो जाती है। क्रिया और मनोविज्ञान 385

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