Book Title: Ahimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Author(s): Gaveshnashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 451
________________ शरीर में व्याप्त नाड़ीतंत्र में जब उत्तेजनाएं, वासनाएं, तरंगें उत्पन्न होती है, न चाहते हुए भी गलत आचरण और व्यवहार हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण नाड़ी संस्थान का गलत अभ्यास है। नाड़ी संस्थान का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। मन, वाणी और काया तीनों उपतंत्र है। तीनों का समान मूल्य है। ऐसी स्थिति में मन को अतिरिक्त मूल्य नहीं दिया जा सकता। मन में किसी को मारने की कल्पना हुई। शरीर का सामर्थ्य नहीं या शरीर सहयोगी नहीं बना तो कल्पना साकार रूप नहीं ले सकती। मन व्यसन से मुक्त होना चाहता है, स्नायु की मांग होने पर व्यक्ति न चाहते हुए भी नशीली चीजों का सेवन कर लेता है। मन ही प्रमुख हो तो तत्काल व्यक्ति व्यसनमुक्त हो सकता है किन्तु ऐसा होता नहीं है। इसका कारण शरीर है, शरीर के स्नायु है। जो आदत स्नायुगत हो जाती है वह शीघ्र छूटती नहीं। स्नायुओं को जैसा अभ्यास दिया जाता है, उसके विपरीत कार्य करने में कठिनाई होती है। व्यक्ति किसी पर हाथ उठाना नहीं चाहता फिर भी उठ जाता है। दूर की वस्तुएं देखने कोई चश्मा लगाता है, अध्ययन के समय उतार देता है, फिर भी अभ्यास वश कई बार हाथ चश्मे के लिए आंख पर चला जाता है। विलियम जेम्स ने 'द प्रिंसिपल ऑफ साइकोलोजी' नामक अपनी पुस्तक में लिखा है- अच्छा जीवन जीने के लिये अच्छी आदतों का बनाना जरूरी है। अच्छी आदतों के निर्माण के लिये अभ्यास की अपेक्षा है। अभ्यास के अभाव में आदतें बदलने का उपक्रम असफलता का द्वार खोलना है। उन्होंने अच्छी आदतों के निर्माण के लिये कुछ सूत्र प्रस्तुत किये।88 1. अच्छी आदतें डालनी हो तो सबसे पहले अच्छी आदतों का चिंतन करो। 2. शरीर को विशेष प्रकार का अभ्यास दो। शरीर की विशेष स्थिति का निर्माण आदतों को अच्छी बनाता है। स्नायुओं को पहले से जिस सांचे में ढाला गया है, उन्हें बदले बिना एक चक्र की भांति चलते रहते है। मन ही हमारी अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का मूल है- इस बद्धमूल अवधारणा की स्थूलता तब दृष्टिगोचर होती है जब क्रिया के गहरे तल पर उतरते हैं। क्रियावाद में मात्र मन ही प्रवृत्ति का हेतु नहीं अपितु भाषा और शरीर भी है। मन, वाणी और शरीर तीनों का स्वतंत्र अस्तित्व है। तीनों में शरीर इसलिये प्रधान है कि ग्रहण और विसर्जन का माध्यम शरीर ही है। जो प्रवाह भीतर आता है या बाहर जाता है, उसमें शरीर हेतु है। इसलिये हमें ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः' के साथ 'शरीर एवं मनुष्याणां कारणं बंध-मोक्षयोः' भी कहना चाहिये, तभी संगति बैठती है।89 क्रिया और मनोविज्ञान 391

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