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होती है। यह चित्तवृत्ति चेतन और अचेतन दोनों का संगम स्थल है। इनमें कार्य-कारण भाव भी है। आहार कारण है तो मान, माया, लोभ कार्य है। भूख, मैथुन, परिग्रह से भी क्रोध आदि संज्ञाओं का उद्भव होता है। ये संज्ञाएं एकेन्द्रिय जीवों से लेकर मनयुक्त पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों में होती है।
दस संज्ञाओं में प्रथम आठ संवेगात्मक हैं और अंतिम दो, ओघ संज्ञा, लोक संज्ञा ज्ञानात्मक है।
ओघ संज्ञा- ओघ संज्ञा सामुदायिकता की द्योतक है। समूह में रहने की मनोवृत्ति मनुष्य और पशु सबमें होती है। समूह की चेतना एवं अनुकरण की वृत्ति ओघ संज्ञा है। मेक्डूगल ने इसे युथवृत्ति कहा है।
लोक संज्ञा- यह वैयक्तिक चेतना है। प्रत्येक प्राणी में कुछ विशेषताएं होती हैं। जो समूह में नहीं मिलती। जैसे व्यापारी का पुत्र व्यापारी बनता है। यह वैयक्तिक चेतना की सक्रियता है।
यद्यपि ये संज्ञाएं मूल स्रोत नहीं है, तथापि व्यवहार एवं आचरणों को प्रभावित अवश्य करती हैं। व्यवहार को व्याख्यायित करने के लिये आधुनिक मनोविज्ञान ने अनुप्रेरणा का आलम्बन लिया है। कोई भी सक्रिय प्राणी वह केवल अपनी जैविक आवश्यकताओं की संपूर्ति के लिये कार्य नहीं करता अपितु उद्दीपक और वातावरण आदि अनेक तत्त्व भी उसके व्यवहार का संचालन करते हैं।
संवेग का स्वरूप- मनोविज्ञान में संवेग को एक शक्ति-शाली अनुप्रेरक के रूप में माना इससे हमारा मन, आचरण और व्यवहार प्रभावित होता हैं। संवेग एक प्रेरित व्यवहार है। जिसमें उच्च प्रकार की चेतना विद्यमान रहती है तथा आकर्षण -विकर्षण का व्यवहार परिलक्षित होता है। सामान्य रूप से संवेग की व्याख्या तीन-स्तरों पर की जा सकती हैं- 1. चेतना में परिवर्तन, 2. व्यवहार के रूप में परिवर्तन, 3. संवेगीय अनुभव और आन्तरिक क्रियाओं में परिवर्तन ।
संवेग की उपस्थिति में व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक क्रियाओं में अन्तर आ जाता है। जैसे एक व्यक्ति अध्ययन कर रहा है, उसका ध्यान, चिन्तन और मानसिक क्रियाएं सभी एक दिशागामी है। शारीरिक मुद्रा भी संतुलित है। सहसा काला नाग निकल आया। भय का संवेग जागा। चिन्तन, ध्यान सब समाप्त हो गये। शारीरिक एवं मानसिक दोनों स्थितियां बदल गई। भय से हृदय की गति, सांस की गति, पाचनक्रिया क्रिया और मनोविज्ञान
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