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अनुयोग द्वार की चूर्णि में इसके चार प्रयोजनों का संकेत है-16 (अ) प्राणी दया।
(ब) अर्हतों की ऋद्धि का दर्शन। (स) नवीन अर्थ का अवग्रहण (द) संशय का अपनयन।
सिद्धसेन गणी ने आहारक समुद्घात के संदर्भ में चतुर्दशपूर्वी की दो श्रेणियों का उल्लेख किया है- (अ) भिन्नाक्षर (ब) अभिन्नाक्षर । जिसे प्रत्येक अक्षर के श्रुतगम्य पर्यायों का परिस्फुट ज्ञान होता है, वह भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी कहलाता है। उसे श्रुतकेवली भी कहा जाता है। उसके मन में श्रुतज्ञान विषयक कोई संशय नहीं रहता इसलिये वह आहारक शरीर का प्रयोग नहीं करता।
अभिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी को अक्षर-पर्यायों का परिस्फुट ज्ञान नहीं होने से उन्हें श्रुत-विषयक संदेह होता है और यदि वह आहारकलब्धि सम्पन्न हो तो आहारक शरीर निर्माण का प्रयोग कर अपने संशय का समाधान करता है।17 वायु पुराण में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। जैसे सूर्य अपनी किरणों को प्रत्यावृत कर लेता है वैसे ही योगी एक शरीर से बहुत से शरीरों का निर्माण कर फिर मूल शरीर में खींच लेता है। ___'विज्ञान के क्षेत्र में टेलीपेथी तथा प्रोजेक्सन ऑफ एस्ट्रल बॉडी' सम्बंधी परीक्षण
और चर्चा आहारक शरीर की अवधारणा को पुष्ट करते हैं। (4) तैजस् शरीर
तैजस शब्द अग्नि का वाचक है। तेजोमय परमाणुओं से निष्पन्न शरीर तैजस शरीर कहलाता है। स्थूल शरीर की आभा, कान्ति, तेजस्विता, दीप्ति, पाचनक्रिया आदि का कारण यही शरीर है। सूक्ष्म शरीर है स्थूल शरीर में व्याप्त है ऊर्जा प्रदान करने वाला यही शरीर है। शरीर-विज्ञान के अनुसार भी हर कोशिका में ऊर्जा का निर्माण होता है। तैजस् शरीर हमारी ऊष्मा, सक्रियता एवं शक्ति का स्रोत है।
यह दो प्रकार का है- स्वाभाविक एवं लब्धिजन्य। लब्धिजन्य तैजस शरीर में दूसरे का हित-अहित संपादित करने का सामर्थ्य होता है। स्वाभाविक तैजस शरीर सभी प्राणियों में होता है। उसके द्वारा सामान्य क्रियाओं का सम्पादन होता है। तैजस् शरीर के बिना पाचन, हलन-चलन आदि नहीं हो सकता। स्थूल शरीर की सभी क्रियाओं का संचालक भी यही है। तैजस् शरीर के मुख्य दो कार्य हैं- (अ) शरीर तंत्र का संचालन (ब) अनुग्रह - निग्रह की क्षमता।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया