Book Title: Ahimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Author(s): Gaveshnashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 435
________________ मन की दूसरी अवस्था है- एकाग्रता । किसी एक आलम्बन - स्मृति - कल्पना या विषय पर स्थिर हो जाना एकाग्रता है। तीसरी अवस्था अमन की है। इसमें मन ही समाप्त हो जाता है, निर्विचार अवस्था का निर्माण हो जाता है। अमन का अर्थ है - स्मृति- - कल्पना आदि से मुक्त हो जाना । निर्विचार अवस्था में पहुंच जाना। योग की भाषा में मन की तीन अवस्थाओं का उल्लेख इस प्रकार है- ( 1 ) अवधान, (2) एकाग्रता और (3) ध्यान । मनोविज्ञान भी इसी का संवादी तथ्य प्रस्तुत करता है। मन की तीन अवस्थाएं है। 44 (1) अवधान ( 2 ) एकाग्रता या धारणा ( 3 ) ध्यान । मानसिक क्रियाएं अवधान- मन की क्रिया को किसी वस्तु के प्रति व्यापृत करना, लक्ष्य के प्रति जागृत करना अवधान है। अवधान दो प्रकार का है - बाह्य वस्तुओं के प्रति और भीतर की ओर। अवधान भीतर में होता हैं तब अन्तर्दृष्टि और प्रज्ञा का उदय होता है। आन्तरिक चेतना प्रकट होती है। एकाग्रता या धारणा यह अवधान से आगे की भूमिका है। चारों ओर भ्रमणशील मन को किसी एक वस्तु या विषय पर केन्द्रित कर देना एकाग्रता है। ध्यान अवधान के बाद एकाग्रता और एकाग्रता के बाद ध्यान होता है। केन्द्रीकृत मन की सघन अवस्था ध्यान है। यहां लम्बे समय तक मन एक आलम्बन पर टिका रह जाता है। ध्यान वह राजमार्ग है जो बहिरात्मा से ऊपर उठाकर अन्तरात्मा में अधिष्ठित करता है। ध्यान भीतर विद्यमान परमात्मा का साक्षात्कार है। इन्द्रियज्ञान और मानसिक क्रिया जैन परम्परा में इन्द्रियज्ञान की पांच भूमिकाएं मानी गई है - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इन्द्रिय के साथ मन का व्यापार अर्थावग्रह से शुरू होता है। अर्थावग्रह इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना रहित सामान्य मात्र क्रिया और मनोविज्ञान 375

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