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का ज्ञान है।45 इन्द्रिय एवं अर्थ का बोध सम्बन्ध दर्शन है। दर्शन के अनन्तर विशेष धर्मों की प्रतिपत्ति का प्रथम चरण अवग्रह है।46 अवग्रह में वस्तु की स्पष्ट प्रतीति नहीं होती है। स्थानांग नंदीसूत्र आदि में अवग्रह के दो प्रकार उपलब्ध हैं-47 (1) व्यंजनाग्रह (2) और अर्थावग्रह।
(1) व्यंजनाग्रह- इन्द्रिय और विषय के पारस्परिक सम्बन्ध को व्यंजनावग्रह कहते हैं। यह अर्थावग्रह का पूर्ववर्ती ज्ञान है। यह अव्यक्त है। विषय-विषयी की सन्निधि होने पर ज्ञान विषय का सामान्य बोध व्यंजनावग्रह हैं। एक व्यक्ति गहरी नींद में सोया है। उसे जगाने के लिये बार-बार आवाज दी जाती है। वह तब तक नहीं जागता जब तक उसकी श्रोत्रेन्द्रिय ध्वनि-पुद्गलों से भर न जाये। इसमें असंख्य समय लग जाता है। असंख्य समय वाला प्राथमिक सम्बन्ध व्यंजनावग्रह है। इसके पश्चात् शब्द का सामान्य बोध होता है जिसे अर्थावग्रह कहते है। व्यजंनावग्रह और अर्थावग्रह में यही अन्तर है। व्यंजनावग्रह अव्यक्त है, अर्थावग्रह व्यक्त।
अवग्रह के लिये प्रयुक्त पर्यायवाची मन के योग होने पर ही संभव है। नंदीसूत्र में अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलंबनता और मेधा इन पांच पर्यायों का उल्लेख है।48
(1) अवग्रहणता- व्यंजनावग्रह की अन्तर्मुहूर्त की स्थिति होती है। उसके पहले समय में जो अव्यक्त झलक ग्रहण की जाती है, उसे अवग्रहणता कहते हैं।
(2) उपधारणता- व्यंजनावग्रह के द्वितीय समय से लेकर असंख्यात समयों तक होनेवाला शब्द आदि पुद्गलों का ग्रहण करने का परिणाम उपधारण है। इसमें विषय की निकटता क्रमश: बढ़ती जाती है।
(3) श्रवणता- जो अवग्रह श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा हो, उसे श्रवणता कहते हैं। इसका कालमान अवग्रहण के समान एक समय है।
(4) अवलंबनता- अर्थ का ग्रहण अवलंबनता है।
(5) मेधा- मेधा सामान्य और विशेष दोनों को ग्रहण करती है। नवीन धर्म की जिज्ञासा होने पर पुन: पुन: नवीन धर्म का अवग्रहण करना मेधा का कार्य है।
नंदीसूत्र में प्रयुक्त ये पांचों एकार्थक नाम अवग्रह की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के सूचक है। तत्त्वार्थ भाष्य में अवग्रह, ग्रह, ग्रहण, आलोचन और अवधारण शब्दों का
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया