Book Title: Ahimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Author(s): Gaveshnashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 427
________________ वैदान्तिक अद्वैतवाद, बौद्ध विज्ञानवाद और शून्यवाद में तथा सांख्यदर्शन आदि में जड़-चेतन तथा पुरूष और प्रकृति के सम्बन्ध की समस्या खड़ी नहीं होती। कारण उनमें मन को मात्र जड़ अथवा चेतन रूप माना गया है, उभयात्मक नहीं। चेतन और जड़ के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने के लिये जैन दर्शन ने मन की द्रव्य और भाव उभय अवस्था मानी है। मन की शक्ति चेतना में है। किन्तु उसका कार्यक्षेत्र भौतिक जगत् है। मन जड़-चेतन सत्ता के बीच संबंध स्थापित करने वाला तत्त्व है। जैन दृष्टिकोण जड़ और चेतन मन में परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया को स्वीकार करता है। पौद्गलिक मन ज्ञानात्मक मन का सहयोगी बनता है। उसके बिना ज्ञानात्मक मन अपना कार्य करने में सक्षम नहीं है। दोनों के संयोग से मानसिक क्रियाएं होती है। ज्ञानात्मक मन चेतन है। वह पौद्गलिक मन एवं शरीर का संचालक है। वस्तु का स्वगुण कभी वस्तु से पृथक् नहीं होता। दो वस्तुओं के योग से तीसरी वस्तु निर्मित होती है, तब उनका गुण भी मिश्रित होता है। तीसरी वस्तु के विघटित होने पर दोनों वस्तुओं के गुण पृथक् होकर स्वतंत्र हो जाते हैं। तेजाब में हाईड्रोजन, गंधक एवं ऑक्सीजन का सम्मिश्रण है। इसका निर्माण करने वाली मूल धातुएं अलग कर दी जाये तो वे धातुएं अपने मूल गुण के साथ ही पाई जाती हैं। इसी प्रकार चेतना के अभाव में पौद्गलिक मन निष्क्रिय हो जाता है। मन का कार्य मन युक्त जीवों के इन्द्रियजन्य ज्ञान में मन का साहचर्य होता है। मन के कार्य में इन्द्रियों का व्यापार होता भी है, नहीं भी, किन्तु इन्द्रिय के व्यापार में मन का व्यापार नियमत: होता है। इन्द्रिय ज्ञान वार्तमानिक एवं अनालोचनात्मक है जबकि मन का ज्ञान त्रैकालिक और आलोचनात्मक होता है। इस आधार पर मन के अनेक कार्य हो जाते है।20 मुख्यतः संकल्प, विकल्प, निदान, स्मृति, जाति स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, कल्पना, श्रद्धान, लेश्या, ध्यान। (1) संकल्प- कल्पना का सघन रूप संकल्प है। (2) विकल्प- एक विषय में अनेक प्रकार की कल्पनाओं का होना विकल्प अवस्था है। 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं' की हर्ष-विषादजनित अनुभूतियां विकल्प कहलाती हैं। पीड़ा की तीव्रता और मंदता की अनुभूति भी विकल्प है। क्रिया और मनोविज्ञान 367

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