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तंतुओं का सम्बन्ध हाइपोथेलेमस के साथ है जो मस्तिष्क का ही एक भाग है। यही उनका नियंत्रण करता है।
(2) आकस्मिक क्रियाएं- आकस्मिक क्रियाएं उद्देश्यहीन एवं अव्यवस्थित होती हैं। जैसे- शिशु का बराबर हाथ-पांव हिलाते रहना, आंख की पुतली को घुमाना आदि।
(3) सहज क्रियाएं- सहज क्रियाओं को सीखा नहीं जाता, सहज रूप से चलती है। जैसे- छींक आना, कांटा चुभने पर तत्काल हाथ-पैर हटा देना, जंभाई लेना।
सहज क्रिया के प्रकार- (1) दैहिक क्रिया (2) ज्ञानात्मक क्रिया।
दैहिक सहज क्रियाओं में पता नहीं चलता। जैसे- आंख में कुछ गिर जाने से आंसू आ जाना। तेज रोशनी से आंख की पुतली का सिकुड़ना आदि दैहिक सहज क्रियाएं शरीर में नियमित रूप से होती रहती है।
ज्ञानात्मक सहज क्रियाएं- इन क्रियाओं के होने पर व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है कि क्रिया हो रही है। जैसे- मुंह में लार आना, खांसना आदि।
(4) सम्बद्ध सहज क्रिया- इस क्रिया में उद्दीपन का बड़ा महत्त्व है। जैसेलार का टपकना, खाने के उद्दीपन द्वारा होता है। हाथ पर पिन चुभाने (उद्दीपन) से हाथ खींचने की क्रिया होती है। यदि पिन न चुभाई जाये तो खींचने की क्रिया भी न होगी।
(5) भावनाजन्य क्रियाएं- भावना जन्य क्रियाओं में संकल्प- शक्ति का महत्त्व नहीं है। ये क्रियाएं उस समय होती हैं जब व्यक्ति आवेश में होता है। किसी कार्य का चिन्तन आते ही जो कार्य बिना किसी नियंत्रण के हो जाता है, उसे भावना जन्य क्रिया कहते हैं। जैसे- कोई व्यक्ति बात कर रहा है। सामने धरती पर पिन पड़ी है, अपनी बात-चीत का सिलसिला चालु रखते हुए पिन को उठा लेता है।
(6) मूल प्रवृत्यात्मक क्रियाएं- मां के मन में बच्चे के प्रति गहरा वात्सल्य होता है। बालक के मन में मां के प्रति अनादर होने के बावजूद भी मां का प्रेम कम नहीं होता। यह मूल प्रवृत्त्यात्मक क्रिया है।53
मानव शरीर की रचना एवं ऐच्छिक-अनैच्छिक क्रियाओं की दृष्टि से तो इसमें तंत्रिकातंत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्रिया और शरीर - विज्ञान
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