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साधना और स्वास्थ्य दोनों दृष्टियों से अस्थि-रचना का विशेष महत्त्व है। त्रेसठ शलाका पुरुषों (तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि) का शरीर वज्र-ऋषभ-नाराच होता है। मोक्ष की उत्कृष्ट साधना और सातवीं नरक के हेतुभूत क्रूर कर्म करने में समर्थ यही अस्थि-रचना है। वैक्रिय शरीर में अस्थियां नहीं होती, अत: नारक व देवों में संहनन भी नहीं होता। सिद्धों के शरीर ही नहीं है। शरीर बिना संहनन कैसे होगा ? पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, (मनरहित) असंज्ञी तिर्यञ्च, असंज्ञी मनुष्य में एक मात्र सेवार्त संहनन पाया जाता है। संज्ञी (मनसहित) तिर्यश्च और मनुष्य में छहों प्रकार के संहनन पाये जाते हैं।29
चिकित्सा शास्त्र में अस्थि - संरचना पर काफी ध्यान दिया गया है। उसमें ‘स्वस्थ' शब्द के दो अर्थ है-स्वयं में रहना और अस्थियों का मजबूत होना। संहनन की तुलना शरीर विज्ञान के संधि संबंधी वर्गीकरण से की जा सकती है। शरीर विज्ञान में संधि के तीन प्रकार हैं-(1) सूत्र संधि (2) उपास्थि (3) स्नेहक। संस्थान
संस्थान का अर्थ है- शारीरिक अवयवों की आकार-रचना या आकृति संस्थान इसके छः प्रकार हैं। 30(क) 1. समचतुरस्र 2. सादि 3. वामन 4. न्यग्रोध-परिमंडल 5. कुब्ज 6. हुण्डक।
(1) समचतुरस्र- अस्र का अर्थ है- कोण। जिस शरीर के चारों कोण प्रमाणोपेत हों, वह समचतुरस्र संस्थान है। जिस शरीर-रचना में ऊर्ध्व, अध: एवं मध्यभाग सम हो, उसे समचतुरस्र संस्थान कहा जाता है। एक कुशल शिल्पी के द्वारा निर्मित चक्र की सभी रेखाएं समान होती हैं। इसी प्रकार इस संस्थान में शरीर के सब भाग समान होते हैं। 30(ख) भगवती वृत्तिकार के अनुसार- सम-नाभि के ऊपर और नीचे के अवयव सकल पुरूष-लक्षणों से युक्त होने के कारण तुल्य होते है।30(ग)
चतुरस्र का एक अर्थ है- प्रधान। जिसके अवयव सम और प्रधान हों उसे समचतुरस्र संस्थान कहते हैं। वृत्तिकार ने इसके तीन वैकल्पिक अर्थ किये हैं
शारीरिक अवयवों के जो प्रमाण कहे गये हैं, चारों कोण उसी के अविसंवादी हो तो उसे समचतुरस्त्र संस्थान कहा जाता है। कोण का अर्थ है-चारों दिशाओं से उपलक्षित शरीर के अवयव। शरीर के चारों ही कोण न न्यून और न अधिक हों, उसे समचतुरस्त्र कहा जाता है। इस विषय में वृत्तिकार के मत से पर्यंकासन में बैठे हुए व्यक्ति के
दोनों जानुओं का अन्तर समान हो। अथवा आसन और ललाट के ऊपरी भाग क्रिया और शरीर-विज्ञान
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