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4. शैक्ष का वैयावृत्त्य - जो श्रुतज्ञान के शिक्षण में तत्पर और व्रतों की भावना में निपुण है, उसे शैक्ष कहते हैं। उनका वैयावृत्त्य करना।
5. ग्लान का वैयावृत्त्य - जिसका शरीर रोग आदि से आक्रान्त है, वह ग्लान है, उसका वैयावृत्त्य करना ।
6.गण का वैयावृत्त्य— स्थविर मुनियों की संगति को गण कहा जाता है। उनका वैयावृत्त्य करना।
7. कुल का वैयावृत्त्य - दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य परम्परा को कुल कहा जाता है, उनका वैयावृत्त्य करना ।
8. संघ का वैयावृत्त्य - श्रमण-समूह को संघ कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य
करना।
9. साधु का वैयावृत्त्य - चिरकाल से प्रव्रजित साधक को साधु कहा जाता है, उसका वैयावृत्त्य करना।
10. मनोज्ञ का वैयावृत्त्य - मनोज्ञ के तीन अर्थ हैं
(अ) अभिरूप अर्थात् जो अपने ही संघ के साधु वेश में है ।
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(ब) जो संसार में अपनी विद्वत्ता, वाक्-कौशल और महा कुलीनता के कारण प्रसिद्ध है।
(स) संस्कारी असंयत सम्यक् - दृष्टि ।
(10) स्वाध्याय - आध्यात्मिक ग्रन्थों के अध्ययन, मनन और निदिध्यासन का नाम स्वाध्याय है। स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं- 1. वाचना, 2. पृच्छना, 3. परिवर्तना, 4. अनुप्रेक्षा, 5. धर्मकथा ।
( 11 ) ध्यान - मन की एकाग्र अवस्था ध्यान है। स्थिर अध्यवसान को ध्यान कहते हैं। अपरिस्पन्द अग्नि ज्वाला शिखा कहलाती है। वैसे ही अपरिस्पन्दमान ज्ञान ध्यान कहलाता है। मन, वचन और काया स्थिरता को भी ध्यान कहा जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में- स्थूल से सूक्ष्म की ओर इन्द्रियों से इन्द्रियातीत अवस्था की ओर प्रस्थान का नाम ध्यान है। जैनागमों में ध्यान के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं- 1. आर्त्त ध्यान, 2. रौद्र ध्यान, 3. धर्म ध्यान, 4. शुक्ल ध्यान ।
क्रिया और अन्तक्रिया
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