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काय-योग प्रतिसंलीनता - हाथ पैर को सुसमाहित कर कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय और सर्व अंगों को प्रतिसंलीन कर स्थिर रहना काय योग प्रतिसंलीनता है । 113
(4) विविक्त - शयनासन सेवन प्रतिसंलीनता - स्त्री, पशु, नपुंसक के संसर्ग से रहित वस्ती में प्रासु एषणीय पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक को प्राप्त कर रहना विविक्त - शयनासन सेवन तप है।
आभ्यन्तर तप के भी छ: प्रकार है
(7) प्रायश्चित्त - जिससे पाप का छेद हो अथवा जो चित्त की विशोधि करता हो, उसे प्रायश्चित्त कहते है । दोष विशुद्धि के लिये प्रयत्न करना प्रायश्चित है। इससे आत्मा निर्मल होती है किन्तु सरलता, निश्छलता पूर्वक प्रायश्चित्त करने से ही मन की ग्रन्थियों का विमोचन होता है, नई ग्रन्थि नहीं बनती।
स्वीकृत नियमों का अतिक्रमण होने पर दोष शुद्धि हेतु गुरू अथवा ज्येष्ठ साध्वी से दण्ड लेना प्रायश्चित्त कहलाता है।
"पापं छिन्नत्ति यस्मात् प्रायश्चित्तमिति भण्यते तस्मात् । प्रायेण वापि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चित्तम् ॥”
प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं
1. आलोचना योग्य
2. प्रतिक्रमण योग्य
3. तदुभय - योग्य
4.
विवेक - योग्य
5. व्युत्सर्ग - योग्य
6. तप - योग्य
7.
छेद - योग्य
8. मूल - योग्य
9. अनवस्थाप्य योग्य
10. पारांचिक योग्य
क्रिया और अन्तक्रिया
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: कायोत्सर्ग।
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गुरू के समक्ष अपने दोषों का निवेदन ।
'मिथ्या मे दुष्कृतम्' मेरा दुष्कृत निष्फल हो - इस
भावना के साथ अपने दोषों का उच्चारण।
आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना।
अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग।
अनशन, अनोदरी आदि तपस्या करना ।
: दीक्षा पर्याय का छेदन।
: पुनर्दीक्षा ।
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साधु -
तपस्या पूर्वक पुनर्दीक्षा ।
1: भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक पुनर्दीक्षा । 114
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