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"खीरदही णवणीयं, घयं तहा तेल्लमेव गुड मज। महु मंस चेव तहा ओगाहि मग च दसमी उ॥
विकृत्तियां नौ हैं।103 दूध, दही, नवनीत, घी, गुड, मधु, मद्य, मांस, तेल। इनमें मधु, मांस, मद्य नवनीत को महाविकृति कहा है।104 पंडित आशाधरजी ने विकृति के चार प्रकार बताये हैं।105
गोरस विकृत्ति- दूध, दही, घृत, मक्खन आदि इक्षुरस विकृति- गुड़, चीनी आदि। फलरस विकृत्ति- अंगूर, आम आदि फलों के रस। धान्य रस विकृति- तेल, मांड आदि। स्वादिष्ट भोजन को भी विकृति कहा जाता है। 106
(5) कायक्लेश- कायाक्लेश का अर्थ शरीर को किसी प्रकार से कष्ट देना नहीं अपितु देहासक्ति का त्याग करना है। इस प्रक्रिया से शरीर को जो कष्ट होता है, उसका नाम कायक्लेश है। स्थानांग में इसके सात प्रकारों का उल्लेख है।107 औपपातिक में बारह नाम आते हैं। आचार्य वसुनन्दी के अनुसार आचाम्ल, निर्विकृति, एक स्थान, उपवास, बेला आदि के द्वारा शरीर को कृश करना कायक्लेश है। 108 कायक्लेश स्वेच्छा से किया जाता है। परीषह सहज समागत कष्ट है।109
(6) प्रतिसंलीनता-प्रति-विरुद्ध में, संलीनता - सम्यक् प्रकार से लीन होना अर्थात् निर्दिष्ट वस्तु के प्रतिपक्ष में लीन होना प्रतिसंलीनता है। वह चार प्रकार की है
(1) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता-पांच इन्द्रियों की विषयाभिमुख-प्रवृत्ति का निरोध अथवा प्राप्त विषयों में राग-द्वेष न करना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है।
(2) कषाय प्रतिसंलीनता-कषाय के उदय का निरोध। उदय प्राप्त कषाय को विफल करना।110
(3) योग प्रतिसंलीनता- योग प्रतिसंलीनता तीन प्रकार की है -
मन-योग प्रतिसंलीनता- अकुशल मन का निरोध करना। कुशल मन की प्रवृत्ति और मन को एकाग्र करना - मन योग प्रतिसंलीनता है।111
वचन-योग प्रतिसंलीनता- अकुशल वचन का निरोध, कुशलवचन की प्रवृत्ति और वाणी का संयम करना - यह वचन योग प्रतिसंलीनता है।112 252
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया