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उपशान्त करता हुआ ग्यारहवीं भूमिका तक पहुंच कर पुन: नीचे की भूमिकाओं में लौट आता है। क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होने वाला दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवें में प्रवेश कर लेता है। वह नीचे की भूमिकाओं में नहीं लौटता है। उपशम श्रेणी वाले जीव का अध:पतन होता है। उच्च भूमिका में जाने के पश्चात् पुनः आना होता है, क्योंकि उपशम की प्रक्रिया एक प्रकार से दमन की प्रक्रिया है। दमित वृत्तियां अवसर प्राप्त होने पर पुनः जागृत हो जाती है। ग्यारहवें गुणस्थान का कालमान अन्तर्मुहूर्त का ही है। अत: वृत्तियों के जागने पर पुन: नीचे की भूमिका में आना स्वाभाविक है। कालमान पूर्ण होते ही नीचे की भूमिका में आ जाता है। अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मोह कर्म सक्रिय हो जाता है। निम्नवर्ती गुणस्थानों का स्पर्श करता हुआ जीव छठे गुणस्थान में ठहरने के योग्य विशुध्दि रहने पर दीर्घकाल तक वहां अवस्थित रह जाता है। पुनः उत्क्रमण भी कर सकता है। यदि अपेक्षित विशुद्धि का अभाव है तो प्रथम गुणस्थान तक भी पहुंच जाता है। निवृत्ति बादर को अपूर्वकरण भी कहा जाता है।140 (क) इस गुणस्थान में अपूर्व विशुद्धि प्राप्त होती है इसलिये इसका नाम अपूर्वकरण है।140(ख)
9. अनिवृत्ति बादर- अनिवृत्ति अर्थात् अभेद। इसमें परिणामों की विशुद्धि सदृश रहती है। दसवें गुणस्थान की अपेक्षा बादर-स्थूल कषाय उदय में रहता है। इसमें आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का गुण संक्रमण, निर्जरण, स्थिति और अनुभाग समाप्त हो जाता है। यह उच्चस्तरीय विकास की भूमिका है। इसमें काम-वासनात्मक भाव यानि वेद जनित विकार समूल नष्ट हो जाते हैं। ___10. सूक्ष्म संपराय- इस गुणस्थान में संपराय (कषाय) का उदय सूक्ष्म हो जाता है, केवल लोभ कषाय का सूक्ष्मांश अवशिष्ट रहता है।
11. उपशान्त मोह- इसमें मोहनीय कर्म को एक मुहूर्त के लिये उपशान्त कर दिया जाता है। इस भूमिका में स्थित जीव उपशांत मोह या वीतराग कहलाता है।
12. क्षीण मोह- यहां मोहकर्म का सर्वथा उन्मूलन हो जाता है। सेनापति के अभाव में सेना पलायन कर देती है। वैसे ही मोह क्षय होते ही एक मुहूर्त की अल्प कालावधि में ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय तीनों घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं। फलतः केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि हो जाती है।
13. सयोगी केवली- चार घाती कर्मों के क्षीण होने पर भी शरीर आदि की प्रवृत्ति शेष रहती है, उसे सयोगी केवली कहते हैं। प्रवृत्ति के कारण ईर्यापथिक बंधन होता है, पर मात्र द्विसामयिक बंधन। 262
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया