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संदर्भ में कुछ मतभेद भी हैं। रत्नशेखर सूरि आदि कई विद्वानों की धारणा है कि जिस जीव का आयुष्य छह मास से अधिक है, उसे यदि केवलज्ञान हो जाये तो वह जीव निश्चय ही समुद्घात करता है।147क किन्तु अन्य केवली के लिये यह नियम नहीं है। आर्य श्याम ने लिखा है
अंगतूण समुग्यायमणंता केवली जिणा। जाइ-मरण विप्पमुक्का सिद्धिवरगतिं गया।
अर्थात् अनन्त केवली और जिन समुद्घात किये बिना ही जन्म-मरण से विप्रमुक्त हो गये।147ख जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का अभिमत इससे भिन्न है। उनका कहना है कि प्रत्येक जीव मोक्ष प्राप्ति से पूर्व समुद्घात अवश्य करता है। समुद्घात करने के बाद ही केवली योग निरोध कर शैलेशी अवस्था प्राप्तकर मोक्ष प्राप्त करता है।148
दिगम्बर मान्यता के अनुसार भी केवली समुद्घात करते हैं। वस्तुत: वे समुद्घात करते नहीं, स्वतः होता है। समुद्घात करना आलोचनार्ह क्रिया है। समुद्घात की प्रक्रिया आत्मा की व्यापकता से संबधित वैदिक मान्यता से साम्यता रखती है। अन्तक्रिया का क्रम __ केवलज्ञान प्राप्ति के बाद अवशिष्ट आयुष्य कर्म को भोगता हुआ जब अन्तर्मुहूर्त
आयुष्य शेष रहता है तब सब योगों का क्रमश: निरोध कर 'सूक्ष्म-क्रिया-अनिवृत्ति नामक शुक्लध्यान में स्थित जीव पहले मनो-योग फिर वचन-योग और अन्त में काययोग तथा, श्वासोच्छ्वास का निरोध करता है,। अ, इ, उ, ऋ, ल इन पांच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय में समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान द्वारा भवोपनाही कर्मों का क्षय कर देता है। तत्पश्चात् औदारिक, तैजस
और कार्मण शरीर को छोड़कर जीव एक समय में ऋजु गति से ऊर्ध्वगमन करते हुए मुक्त हो जाता है। सिद्ध गति में उत्पन्न होने वाले जीव केवल ऋजुगति से ही गमन करते हैं। उनके विग्रह गति नहीं होती। सयोगी केवली योग निरोध की प्रक्रिया में पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के प्रथम समय में मनोद्रव्य और मनोयोग होता है, उसकी तुलना में असंख्यात गुण हीन मनोयोग का प्रति समय निरोध करता हुआ असंख्यात समय में सर्वथा मनोयोग का निरोध कर लेता है। मनोयोग का निरोध कर पर्याप्त द्वीन्द्रिय के वचन योग से असंख्यात गुण न्यून वचन योग का असंख्यात समय में सर्वथा निरोध हो जाता है। उसके बाद अविलम्ब प्रथम समय में उत्पन्न हुए अपर्याप्त एवं सबसे अल्प वीर्यवाला सूक्ष्म पनक जीव का जितना काययोग होता है, उससे असंख्यात गुणहीन काययोग का सर्वथा
क्रिया और अन्तक्रिया
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