________________
अन्तक्रिया के उपाय
अन्तक्रिया के तीन उपाय हैं - ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना। ज्ञानाराधना वाला जघन्य तीन भव अथवा सात-आठ भव में अंतक्रिया करता है। दर्शनाराधना वाला जघन्य तीन भव अथवा सात-आठ भव में अंतक्रिया करता है।
चारित्राराधना वाला जघन्य दो भव अथवा तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करता। मध्यम रूप से ज्ञान-दर्शन-चारित्राराधना करने वाला दो भव अथवा तीसरे में निश्चित रूप से अन्तक्रिया करता है। उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन-चारित्राराधना करने वाला कोई उसी भव में अन्तक्रिया करता है। कोई दो भव बाद अथवा कोई कल्पोत्पन्न-कल्पातीत देवलोक में जाता है।
अधिकारी के आधार पर अन्तक्रिया के दो प्रकार हो जाते हैं - श्रमण की अन्तक्रिया और केवली की अन्तक्रिया। श्रमण की अन्तक्रिया
साधु की दो गतियां हैं- अंतक्रिया और कल्पोत्पन्न (कल्पोपपत्तिका)। जो एजनादि क्रिया नहीं करता, उसके सकल कर्म अग्नि में निक्षिप्त घास की तरह शीघ्र भस्म हो जाते हैं। केवली की अन्तक्रिया
केवल-ज्ञान की उपलब्धि के पश्चात् सयोगी केवली अपेक्षानुसार समुद्घात करके या बिना किये अवशिष्ट अन्तक्रिया का प्रारंभ करते हैं। उनमें वेदनीय, नाम, गोत्र कर्म की स्थिति से आयुष्य कर्म की स्थिति कम रह जाने उनमें संतुलन स्थापित करने के लिये स्वभावतः समुद्घात क्रिया होती है। इसमें आत्म-प्रदेश सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं। इस प्रक्रिया का कालमान सिर्फ आठ समय का है। पहले समय में आत्म-प्रदेश लोक के अन्त तक ऊर्ध्व और अधोदिशा में व्याप्त होते हैं। इसमें दंड जैसा आकार बनता है। दूसरे समय में कपाटाकार फैल जाते है। तीसरे समय में मंथनी के रूप में और चौथे समय में आत्मा संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाती है। उसके बाद पांचवें, छठे, सातवें, आठवें समय में आत्म-प्रदेश क्रमश : मंथान, कपाट और दण्ड के आकार में होकर पूर्ववत् देहस्थित हो जाते हैं। आठ समय में पहले और आठवें समय में औदारिक योग दूसरे, छठे और सातवें समय में कार्मणकाययोग के साथ औदारिक मिश्र काययोग तथा तीसरे, चौथे और पांचवें में कार्मण योग पाया जाता है। समुद्घात करने, नहीं करने के
268
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया