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____14. अयोगी केवली- इसमें सम्पूर्ण मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रियाओं का निरोध हो जाता है, निष्प्रकंप स्थिति प्रकट होती है। यही चरम उपलब्धि है, आत्म-विकास की पराकाष्ठा है, क्रिया से अक्रिया की साधना की सिद्धि है।
योगदृष्टि समुच्चय में आचार्य हरिभद्र ने - मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, परा आदि 8 दृष्टियों का विवेचन किया है। क्रिया से अक्रिया की ओर आरोहण
जैन परम्परा की तरह अन्य परम्पराओं में भी अध्यात्म विकास की भूमिका पर चिंतन किया गया है। बौद्ध दर्शन में हीनयान-महायान-इन दोनों परम्पराओं में कुछ मतभेद है। हीनयान में निर्वाण मार्ग के अभिमुख साधक को श्रोतापन्न-भूमि, सकृदानुगामी, अनागामी, अर्हत् भूमि इन चार । भूमिकाओं को पार करना होता है।141महायान में दस भूमिकाओं का उल्लेख है
1. प्रमुदिता 2. विमला 3. प्रभाकरी 4. अर्चिष्मती 5. सुदुर्जया 6. अभिमुक्ति 7. दूरगमा 8. अचला 9. साधुमति 10. धर्ममेघ योग वसिष्ठ में गुणस्थानों के समकक्ष ही चौदह भूमिकाएं प्राप्त होती है।142 1. बीज जाग्रत - यह चेतना की सुषुप्त अवस्था है। 2. जाग्रत - इसमें अहं और ममत्व का अत्यल्प विकास होता है। 3. महाजाग्रत - इसमें अहं और ममत्व विकसित हो जाते हैं। 4. जाग्रत स्वप्न - मानसिक कल्पना की अवस्था है। 5. स्वप्न - स्वप्न चेतना की अवस्था है। 6. स्वप्न जाग्रत - यह स्वप्निल चेतना है।
7. सुषुप्ति - स्वप्न रहित निद्रा की अवस्था है। क्रिया और अन्तक्रिया
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