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"जइ अकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति, बुझंति, मुच्चंति,परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति।132 जो जीव अक्रिय हो जाता है, वह उसी भव में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
जैन दर्शन के अनुसार पुण्य - पाप दोनों के समाप्त होने से मुक्ति होती है। पूर्ण मुक्ति के लिए सद् - असद् सभी प्रकार की क्रियाओं से मुक्त होना आवश्यक है। क्रिया निरोध से कर्म निरोध होता है। साधना के प्रारम्भ में असत्कर्म का निरोध होता है। अन्त में सत्क्रिया का भी निरोध हो जाता है। 'सब दुःखों के अन्त करने की प्रक्रिया का नाम अन्तक्रिया है। नये का अप्रवेश और पुराने का निर्जरण अपेक्षित है। इसीलिये संवर - निर्जरा मोक्ष के साधक तत्त्व हैं। उनके बिना अन्तक्रिया नहीं होती।
यह अन्तिम क्रिया है। इसके पश्चात् कोई क्रिया नहीं होती। इसके द्वारा जन्म और मृत्यु का पर्यवसान हो जाता है। आत्मा सूक्ष्म शरीर से भी हमेशा के लिए मुक्त हो जाती है। वृत्तिकार के अनुसार कर्म क्षय यही अन्तिम क्रिया है। कहा है- “अन्तक्रियामिति अंत-अवसानंतच्च प्रस्तावादिह कर्मणा भव सातत्यं, अन्यत्रा गमेऽन्तक्रिया शब्दस्य रुढ़त्वात् तस्य क्रियाकरण अन्तक्रिया - कर्मान्त करणं मोक्ष इति भावार्थः॥" कृत्स्रकर्म क्षयान्मोक्ष इति वचनात्। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। पर उचित उपायों द्वारा अनादि सम्बन्ध टूट जाता है। धातु और मिट्टी अनादि काल से मिले हुए है किन्तु शोधन की प्रक्रिया से दोनों अलग हो जाते हैं। वैसे ही अध्यात्म साधना की विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा आत्मा और कर्म अलग हो जाते हैं।
__ आत्मा और कर्म के पारस्परिक सम्बन्ध का हेतु है- क्रिया। अक्रिय अवस्था में कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं होता। जैसे- जैसे कषाय क्षीण होते हैं, अक्रिया की स्थिति आने लगती है। चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण अक्रिया की स्थिति घटित हो जाती है, तब सारे सम्बन्ध क्षीण हो जाते हैं।133 अन्त क्रिया और गुणस्थान
अन्तक्रिया या अक्रिया की क्रमिक स्थिति को समझने में गुणस्थान का सिद्धांत महत्त्वपूर्ण हैं। जैन दर्शन में आत्म विशुद्धि का मानदण्ड गुणस्थान है। समवायांग के टीकाकार अभयदेव सूरि ने गुणस्थानों को ज्ञानावरणादि कर्मों की विशुद्धि से निष्पन्न
आत्म-स्थिति कहा है।134आगमों में गुणस्थान शब्द के स्थान पर जीव स्थान शब्द का प्रयोग भी मिलता है।
क्रिया और अन्तक्रिया
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