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च्यवन - ऊपर से नीचे आना। ज्योतिष और वैमानिक देव ऊपर से नीचे आकर जन्म लेते हैं इसलिये उनकी मृत्यु च्यवन कहलाती है।
उपपात - देव, नारक का जन्म।
प्रश्न हो सकता है जीव मरकर इन गतियों में क्यों जाता है ? मनुष्य मरकर मनुष्य अथवा, तिर्यञ्च मरकर पुनः तिर्यञ्च ही होता है या उनका उत्क्रमण, अपक्रमण भी संभव है ?
कारण की मीमांसा करने पर स्पष्ट होता है कि इन गतियों में उत्पत्ति का मुख्य घटक है - लेश्या । आयुबंध के समय लेश्या के अशुभ होने पर अपक्रमण और शुभ होने पर उत्क्रमण हो सकता हैं।
भगवान महावीर के समय एक दार्शनिक मान्यता थी कि जो जीव जैसा है। जन्मान्तर में भी वह वैसा ही रहता है। उसे जन्मान्तर सादृश्यवाद कहा जा सकता है। गणधरवाद के अनुसार आर्य सुधर्मा इस मान्यता के पक्षधर थे। जन्मान्तर सादृश्यवादी की मान्यता थी - मनुष्य सदा मनुष्य रहता है, पशु पशु ही। स्त्री सदा स्त्री के रूप में उत्पन्न होती है। किसी भी जीव की गति अथवा योनि में कोई परिवर्तन नहीं होता।
अनेकांतिक चिन्तन का फलित होगा कि अपरिवर्तनीयता अमुक कालांश तक हो सकती है। वह सार्वत्रिक और सार्वकालिक नहीं हैं। स्थानांग में जीवों के जन्म-मरण रूप चक्र को कायस्थिति एवं भवस्थिति दो भागों में विभक्त किया है।
काय स्थिति - एक ही प्रकार के शरीर अथवा काय में निरन्तर जन्म लेना कायस्थिति है।
भव स्थिति - एक ही प्रकार का जन्म लेना भवस्थिति है। 76 (ख) देव और नारक मृत्यु के अनन्तर पुन: उसी योनि में जन्म नहीं लेते अत: उनके केवल भवस्थिति होती है, कायस्थिति नहीं। मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च मृत्यु के अनन्तर अपनी-अपनी योनि में लगातार सात-आठ बार जन्म ले सकते हैं। 77 इस संदर्भ में मनुष्य मर कर मनुष्य, पशु मरकर पशु होता है - इस सिद्धांत को मान्य किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में कालांश की चर्चा भी उपयोगी रहेगी।
कालांश के तीन प्रकार है- शून्यकाल, अशून्यकाल, मिश्रकाल |
शून्य काल - किसी भी विवक्षित वर्तमान में जिस गति में जितने जीव हैं। उनमें से क्रिया और पुनर्जन्म
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