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परिणाम को साथ लेकर चलती है। क्रिया और कर्म में कालक्षेप नहीं होता है, ये सहचारी है । क्रिया के साथ ही तत्काल कर्म बंध हो जाता है। वह कब तक साथ रहेगा, इसका स्वतंत्र नियम है।
कर्म की विद्यमानता में पुनर्जन्म निश्चित है। पुनर्जन्म की स्वीकृति में ही आत्मवाद, कर्मवाद, क्रियावाद और निर्वाणवाद की सार्थकता है। यही आचार - शास्त्र का आधार है। पवित्र जीवन की प्रेरणा है। पवित्र आचार, व्यवहार व्यक्तिगत सुख-शांति का हेतु है, साथ ही सामाजिक और राष्ट्रीय चरित्र को प्रभावित कर उसे स्वस्थता प्रदान करने वाला है।
संदर्भ सूचि
1. (क) आचारांग ; 4/46
1. (ख) कर्मवाद और जन्मान्तर, पृ. 24
2. कैवल्योपनिषद्; 1 / 14
3. पञ्चास्तिकाय; गा. 17
4. सर्वार्थसिद्धि; 34 पृ. 208
5. पार्श्वनाथचारित्र; 9/3
6. उत्तराध्ययन; अध्याय 9
7. वही; 13/5-7
तीसे य जाईइ उ पावियाए, वुच्छामु सोवाग निवेसणेसु ।
सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा, इहं तु कम्माई पुरेकडाई || 19 ||
8. वही ; 19 / 6-7
साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणम्मि सोहणे ।
मोहंगयस्स सन्तस्स, जाई सरणं समुप्पन्न ||
9. वही ; 14 वां अध्ययन
10. (क) आचारांग भाष्य, पृ. 20
10. (ख) सांख्यसूत्र 6/41
11. सांख्य प्रवचन, भाष्य 6/9
12. वैशेषिक दर्शन, प्रशस्तपाद भाष्य
13. पातंजल योगदर्शन 2/2
क्रिया और पुनर्जन्म
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