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इन बीस भेदों में भी प्रथम पांच आश्रव ही मुख्य हैं। शेष योग आश्रव का ही विस्तार है।
(1) मिथ्यात्व आश्रव - मिथ्यात्व का अर्थ अयथार्थ दृष्टिकोण है। तात्त्विक भाषा में विपरीत तत्त्व श्रद्धा का नाम मिथ्यात्व है। जीव की दृष्टि को विकृत करने वाले मोह-परमाणुओं के उदय से अयथार्थ में यथार्थ और यथार्थ में अयथार्थ की जो प्रतीत होती है, वह मिथ्यात्व आश्रव है। आचार्य पूज्यपाद ने एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान के भेद से मिथ्यात्व के पांच प्रकार माने हैं। 22
(2) अविरति आश्रव - अविरत अर्थात् अत्याग भाव। आन्तरिक लालसा और असंयमित जीवनशैली से इसका सम्बन्ध है । चारित्र मोह की प्रबलता के अंश रूप में या सम्पूर्ण रूप में हिंसा आदि पापकारी प्रवृत्तियों के छोड़ने की वृत्ति ( भावना या इच्छा) ही पैदा नहीं होती। हिंसा, असत्य, स्तेयवृत्ति, मैथुन (काम-वासना), परिग्रह उसके भेद हैं। त्याग के प्रति अनुत्साह और भोग में उत्साह अविरति है।
(3) प्रमाद आश्रव - आत्म विस्मृति अथवा आलस्य को प्रमाद कहा है। स्त्रीकथा, देशकथा, भक्तकथा, राजकथा प्रमाद के अन्तर्गत है । तत्त्वज्ञान की भाषा में अध्यात्म के प्रति होने वाले आन्तरिक अनुत्साह का नाम प्रमाद है।
( 4 ) कषाय आश्रव - राग-द्वेषात्मक उत्ताप का नाम कषाय है। कषाय आध्यात्मिक दोष है। कषाय व्यक्त हो या अव्यक्त, आत्मा के मूल स्वरूप को प्रभावित और विकृत करता है। धवला के रचनाकार आचार्य वीरसेन लिखते हैं- दुःख रूप धान्य के उत्पादक कर्म रूपी खेत का कर्षण करते हैं। जो उन्हें फलवान बनाते हैं, वे कषाय कहलाते हैं। 23 यदि कषाय का अभाव हो तो जन्म-मरण की परम्परा का विषवृक्ष स्वयं ही सूखकर नष्ट हो जाता है।
कषाय के लिये आचारांग में 'आयाण ' शब्द का प्रयोग हुआ है। जो पुरुष कर्म के आदान को रोकता है, वही अपने किये कर्म का भेदन कर सकता है। 24 राग-द्वेष प्रमुख आश्रव है। राग से माया और लोभ एवं द्वेष से क्रोध व मान उत्पन्न होते हैं। 25
चारों कषाय वासना के राग-द्वेषात्मक पक्षों की आवेगात्मक अभिव्यक्तियां हैं। वासना अपनी तीव्रता की विधेयात्मक अवस्था में राग और निषेधात्मक अवस्था में द्वेष हो जाती है। राग-द्वेष की ही बाह्य आवेगात्मक अभिव्यक्ति कषाय हैं। आत्म-विकास में सर्वाधिक कषाय बाधक है।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया