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का शुद्धिकरण निर्जरा का कार्य है। संवर के साथ निर्जरा अवश्यंभावी है। निर्जरा के साथ संवर की नियमा (निश्चित सम्बन्ध) नहीं हैं। निर्जरा की परिभाषा और स्वरूप
पूर्वबद्ध कर्मों को निर्वीर्य अथवा निष्फल करना निर्जरा है। कर्मों के पृथक् होने का नाम निर्जरा है।69 पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ना निर्जरा है।70 निर्जरा शब्द का अर्थ जर्जरित करना, अलग करना है। जैसे वृक्ष से लगा हुआ फल पककर नीचे गिर जाता है, वैसे ही कर्म विपाककाल में अपना-अपना फल देकर अलग हो जाते हैं। आचार्य तुलसी ने जैन सिद्धांत दीपिका में निर्जरा को पारिभाषित करते हुए लिखा है- तपस्या के द्वारा कर्म का विच्छेद होता है। इससे आत्मा की उज्वलता होती है। इस आत्म-उज्ज्वलता को ही निर्जरा कहा है।72
आत्मा को विशुद्ध करने की क्रिया का नाम निर्जरा है। आचार्य भिक्षु ने धोबी के रूपक द्वारा इस प्रक्रिया को समझाया है
1. धोबी जल में साबुन डाल कपड़ों को उसमें तपाता है। 2. फिर उन्हें पीट कर उनके मैल को दूर करता है। 3. फिर साफ जल में डालकर स्वच्छ करता है।
आचार्य भिक्षु ने धोबी की तुलना को दो प्रकार से स्पष्ट किया हैं। प्रथम में तप साबुन है, आत्मा वस्त्र के समान है। ज्ञानजल है और ध्यान स्वच्छ जल। इससे कर्ममल दूर होता है, आत्मा स्वच्छ बनती है। दूसरा, ज्ञान को साबुन माना जाये तो तप निर्मल नीर होगा, आत्मा धोबी के समान और आत्मा के निजगुण वस्त्र के समान होंगे। उन्होंने आगे कहा-जीव ज्ञान रूपी शुद्ध साबुन और तप रूपी निर्मल नीर से अपने आत्मा रूपी वस्त्र को धोकर स्वच्छ करे।
जीव असंख्यात प्रदेशी चेतन द्रव्य है। उसका एक-एक प्रदेश आश्रव-द्वार है।3 प्रत्येक प्रदेश से प्रति समय अनन्तानन्त कर्मों का आश्रवण हो रहा है। ये कर्म प्रवेश करते है, फल देकर प्रति क्षण अनन्त संख्या में अलग भी होते रहते हैं। बंधने और अलग होने का चक्र चलता रहता है। इसके बावजूद भी जीव कर्म से मुक्त नहीं होता। जैसे घाव में सुराख हो और पीप आती रहे तो ऊपर का मवाद निकलने पर घाव खाली नहीं होता। जैसे कोई व्यक्ति पुराने ऋण का भुगतान तो करता हैं किन्तु नया ऋण भी लेता रहता है तो वह ऋणमुक्त नहीं होता। वैसे ही जब तक नये कर्मों के आगमन का स्रोत चालू है तब क्रिया और अन्तक्रिया
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