________________
ने लिखा 'कायवाङ्मनोव्यापारो योग : ' अर्थात् मन, वचन, काय की प्रवृत्ति योग है। S सूक्ष्म रूप में मन, वचन और काय के निमित्त से होने वाला आत्मा का स्पन्दन योग
'वर्यान्तराय कर्म के क्षय, क्षयोपशम तथा नामकर्म के उदय से प्राप्त लब्धि योग की प्रयोजक होती है। वीर्य संपन्न आत्मा का मन, वचन, काय वर्गणानिमित्तक आत्मप्रदेश का परिस्पंद योग है। 7
योग के प्रकार
योग के संक्षेप में दो प्रकार हैं- द्रव्ययोग और भावयोग। द्रव्ययोग पौद्गलिक है। भाव योग आत्मिक परिणति है । केवली का काययोग एवं वचन योग- ये दोनों भाव योग हैं किन्तु मनोयोग द्रव्य योग है। योग शुभ और अशुभ दोनों होते हैं। मोक्ष तत्त्व की प्रधानता और गौणता से उसके सावद्य - निरवद्य भेद भी उपलब्ध हैं। इनके अलावा योग के तीन प्रकार भी हैं- मनोयोग, वचन योग और काय योग। अध्यवसाय, परिणाम और लेश्या भी एक प्रकार की क्रिया, परिस्पंदन ही हैं किन्तु वे अति सूक्ष्म होने से योग के अन्तर्गत नहीं आते हैं। योग स्थूल स्पंदन है। मन, वचन और काय के निमित्त से आत्मा में जो स्पंदन होता है वह मूलतः एक ही प्रकार का है किन्तु विवक्षा या निमित्त भेद से तीन प्रकार का है - मानसिक क्रिया (मनोयोग), वाचिकक्रिया ( वचन योग ) और शारीरिक क्रिया (काय योग ) । अत: जैन दर्शन में योग और क्रिया दोनों शब्द एकार्थक है।
( 1 ) मनोयोग - मन हमारी प्रवृत्ति का सूक्ष्म और मुख्य कारण है। मन के द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न मनोयोग है। उसके सत्य, असत्य, मिश्र और व्यवहार के भेद से चार प्रकार किये गये हैं। उनके भी चार प्रकार हैं- सत्य मन योग, असत्य मन योग, मिश्र मन योग और व्यवहार मन योग ।
( 2 ) वचन योग - भाषा द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न वचनयोग है। भेदप्रभेद मनोयोग वत् ही समझे जा सकते हैं।
(3) काय योग- शरीर द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न काययोग है। काययोग का सम्बन्ध शरीर के साथ है। शरीर पांच हैं- औदारिक, वैक्रिय, आहार, तैजस और कार्मण। इनकी स्वतन्त्र तथा संयुक्त क्रिया के आधार पर काययोग के सात प्रकार किये गये हैं- औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रिय, वैक्रिय मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण काययोग । चार्ट के द्वारा भी इसे स्पष्टतया समझा जा सकता है।
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
224