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होता है यद्यपि वह अल्पकालिक ही है। जैसे- सूखी दीवार पर मिट्टी डालने से वह दीवार का स्पर्श कर तत्काल अलग हो जाती है, उसी प्रकार ईर्यापथिक बंध में कर्म परमाणुओं का स्पर्श मात्र होता है। इसमें बंध की स्थिति दो समय की ही होती है। कर्म पहले क्षण में बंधते हैं। दूसरे क्षण में निर्जीर्ण हो जाते हैं। बंधन की प्रक्रिया में कषाय और योग का स्थान महत्वपूर्ण है । कषाय का सम्बन्ध स्थिति एवं अनुभाग से है, योग
प्रकृति और प्रदेश से । यद्यपि क्रिया के स्वरूप का निर्धारण कषायों से होता है किन्तु निकटवर्ती कारण की दृष्टि से बंधन में योग की ही मुख्य भूमिका रहती है।
इस प्रसंग में ध्यातव्य तथ्य यह है कि चौदहवें गुणस्थान में वीर्यान्तराय कर्म का क्षय होने पर भी क्रिया का निरोध होने से चौदहवें गुणस्थान में योग नहीं पाया जाता। वह अयोग में परिणत हो जाता है । "
प्रश्न हो सकता है कि मनोयोग, वचनयोग में काययोग का संबंध किसी न किसी रूप में होता ही है। अत: एक काययोग ही पर्याप्त है? आचार्य महाप्रज्ञजी के अनुसार वस्तुत: काययोग ही एक मात्र योग है किन्तु कार्यभेद से एक के ही तीन रूप हो जाते हैं। जब काययोग मनन करने में सहयोगी बनता है तब मनोयोग कहलाता है। वचनयोग में सहयोगी बनता है तब वचनयोग कहलाता है ।
निश्चित दृष्टि से तीनों योग अलग-अलग न होकर काययोग के ही तीन प्रकार हैं। तीनों पुद्गल रूप हैं । पुद्गल का परिणमन आत्म-सापेक्ष है। इस दृष्टि से तीनों योग एक ही है।
योग आश्रव का उल्लेख प्रायः सभी परम्पराओं में समान रूप से मान्य है । व्याख्या की दृष्टि से इस सन्दर्भ में दो परम्पराएं उपलब्ध हैं। एक परम्परा शुभ-अशुभ दोनों प्रकार की प्रवृत्ति (क्रिया) को योगाश्रव में समाहित करती है। दूसरी परम्परा केवल अशुभप्रवृत्तियों को योगाश्रव स्वीकार करती है। इसमें देवेन्द्र सूरि प्रमुख हैं। उन्होंनें अप्रशस्त या अशुभ मन, वचन, काया के व्यापार को योग आश्रव माना है। अ
उमास्वाति तथा अन्य अनेक आचार्यों ने योगाश्रव में शुभ-अशुभ दोनों प्रकार की क्रियाओं का समावेश किया।' आचार्य भिक्षु ने इस विषय में स्पष्टीकरण किया है। उनके अनुसार शुभयोग निर्जरा का हेतु है अत: उसका समावेश योग आश्रव में नहीं होता किन्तु निर्जरा के साथ पुण्य का बंध होता है, इस दृष्टि से शुभ क्रियाओं को योग आश्रव के अन्तर्गत लिया गया है।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया