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3. अनुभाग संक्रमण- बंधकालीन रस में भी अन्तर हो सकता है। तीव्ररस, मंदरस में अथवा मंदरस तीव्र रस में बदल जाता है। इस संदर्भ में ज्ञातव्य है कि जिस प्रकृति का जहां तक बंध होता है, उस प्रकृति का अन्य प्रकृति में संक्रमण वहीं तक होता है। उदाहरणार्थ-असातवेदनीय का बंध छठे गुणस्थान तक होता है। सातवेदनीय का तेरहवें गुणस्थान तक। अतः सातवेदनीय का असातवेदनीय में संक्रमण छठे तक तथा असातवेदनीय का सातवेदनीय में रूपान्तरण तेरहवें गुणस्थान तक ही संभव है।
4.प्रदेश संक्रमण- प्रदेश संक्रमण पांच प्रकार का है 1. उद्वेलन 2. विध्यात 3. अध: प्रवृत्त 4. गुण संक्रमण 5. सर्व संक्रमण।
उद्वेलन संक्रमण- कर्म प्रकृतियों के प्रदेशों (परमाणुओं) का अन्य प्रकृति में परिणमन होना।
विध्यात संक्रमण-जिन कर्मों का गुण-प्रत्यय या भव-प्रत्यय से अर्थात् गुणस्थान और नरक, देव आदि भव विशेष के कारण बंध नहीं होता, उन कर्मों की सत्ता में रही हुई प्रकृतियों का संक्रमण होता है, वह विध्यात संक्रमण कहलाता है।
अधः प्रवृत्त संक्रमण- कर्म प्रकृतियों के बंध और अबंध की दशा में कर्म प्रकृतियों के प्रदेशों का स्वभावत: संक्रमण होता रहता है, उसे अध: प्रवृत्त संक्रमण कहते हैं।
गुण संक्रमण-अपूर्व करणादि परिणामों का निमित्त पाकर प्रति समय जो प्रदेशों का असंख्यात गुणश्रेणी रूप संक्रमण होता है, उसे गुण संक्रमण कहते है।
सर्व संक्रमण- विवक्षित कर्म प्रकृति के सभी प्रदेशों का एक साथ अन्य प्रकृति में संक्रमण होना सर्व संक्रमण है। संक्रमण का यह सिद्धांत मानसिक ग्रंथियों से मुक्ति पाने के उपाय के रूप में अत्यन्त उपयोगी है।
(8) उपशम- कर्मों के उदय को कुछ समय के लिये रोक देना उपशम है। उपशम में कर्म की सत्ता समाप्त नहीं होती, उसकी शक्ति को निष्क्रिय बना दिया जाता है। इससे राख से दबी अग्नि की तरह वे कुछ करने में असमर्थ हो जाते हैं।
(9) निधत्ति- निधत्ति वह अवस्था है जिसमें उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है किन्तु इस अवस्था में उद्वर्तना तथा अपवर्तना की संभावना बनी रहती है। कर्मों की स्थिति और अनुभाग न्यूनाधिक हो सकते हैं।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया