________________
आत्मा के कौन से गुण का आवारक, विकारक या विघातक बनेगा, यह स्वभाव व्यवस्था है। यही प्रकृति बंध है। प्रकृति की अपेक्षा कर्मों के मूल आठ भेद हैं।
उत्तर भेद 148 हैं जिनका विवेचन पूर्व अध्याय में किया जा चुका है। उत्तरोत्तर असंख्यात भेद भी हो जाते हैं। ये सभी प्रकृतियां पुण्य-पाप रूप होती हैं तथा प्रकृति बंध के अन्तर्गत आती है।
स्थिति बंध-कर्मों की आत्मा के साथ सम्बद्ध रहने की कालावधि (अवस्थिति) को स्थितिबंध कहते हैं।96 जैन कर्म-ग्रंथों में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की विभिन्न स्थितियों की विवेचना है। किस कर्म का कितना अवस्थान और अबाधाकाल है ? इन सभी प्रश्नों का संबंध स्थिति बंध से है।
अनुभाग बंध-कर्मों के विपाक को अनुभाग बंध कहते हैं। 97 अनुभाग या रस का सम्बन्ध कर्मों के विपाक या फलदान की शक्ति से जुड़ा हुआ है। यह शक्ति ही रस है। यह रस कर्म के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। मनोविज्ञान के अनुसार भी चेतना तक पहुंचाने में रासायनिक-स्रावों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। हमारी चेतना में जो अनुभव या संस्कार जमा होते हैं, उनकी शक्ति का निर्धारण उस समय स्रावित अन्त : स्रावी ग्रंन्थियों के रसायन पर निर्भर करता है। कर्मशास्त्र के अनुसार रस ही कर्म की शक्ति का निर्धारण करते हैं।
रागादि भावों के तारतम्य के अनुसार फलदान शक्ति में भी न्यूनाधिकता स्वाभाविक है। पूज्यपाद ने जठराग्नि का निदर्शन दिया है। जठराग्नि के अनुसार आहार का विविध रूप से परिणमन होता है। वैसे ही तीव्र, मंद, मध्यम कषाय के अनुरूप कर्मों के रस तथा स्थिति का निर्धारण होता है।
बंध की प्रकृति एवं प्रदेश के निर्धारण में क्रिया (योग) की तथा स्थिति एवं अनुभाग में कषाय की मुख्य भूमिका होती है। कषाय जितना तीव्र होता है, उसी के अनुसार कर्म का अनुभाग, रस का बंध भी तीव्र होता है। मनोविज्ञान के अनुसार भी चेतना में सूचना से सम्बन्ध स्थापित करने वाले रासायनिक स्रावों का नियामक संवेग होता है।
प्रदेश बंध- कर्मों के दल संचय को प्रदेश बंध कहते हैं। कार्मण वर्गणा के पुद्गलों का अमुक परिमाण में बंधना-प्रदेश बंध है। प्रदेश किसी भी पदार्थ की सबसे छोटी अविभक्त इकाई का नाम है। आकाश के छोटे से छोटे अविभागी अंश का नाम क्रिया और पुनर्जन्म
207