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सब के सब वहां से निकल जाते हैं। एक भी शेष नहीं रहता, वह कालांश शून्यकाल कहलाता है।78
अशून्यकाल- जिस गति में जितने जीव हैं, उनमें से न कोई जन्म लेता है, न कोई मरता है, वह अशून्यकाल है।
मिश्रकाल-जिस गति में जितने जीव हैं, उनमें से कुछ निकल कर दूसरी गति में जन्म लेकर पुनः वहीं उत्पन्न हो जाते हैं, कुछ वहीं रहते हैं। उनमें से एक भी जीव रह जाता है तो वह मिश्र कालांश कहलाता है।80
शून्यकाल में पुरानी पीढ़ी समाप्त हो जाती है और नई पीढ़ी जन्म लेती रहती है। अशून्यकाल में जीवों का आगमन और निर्गमन दोनों रुक जाते हैं। यह स्थिति नरक. मनुष्य और देवगति में उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक रहती है। विकलेन्द्रिय और सम्मूर्छिम तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय में यह स्थिति अन्तर्मुहूर्त तक रहती है। 1 मिश्रकाल में आगमन-निर्गमन चालु रहते हैं। प्रत्याख्यान की भूमिका
आयुष्य बंध में प्रत्याख्यान भी निमित्त बनता है। जैसे- वैमानिक के अतिरिक्त शेष तेईस दण्डकों के आयुष्य का बंध अप्रत्याख्यानी जीव ही करते हैं। साधु प्रत्याख्यानी, श्रावक प्रत्याख्याना प्रत्याख्यानी होते हैं इसलिये उनका वैमानिक के अतिरिक्त किसी अन्य गति के आयुष्य का बंध नहीं होता। जयाचार्य ने उसका स्पष्ट उल्लेख करते हुए लिखा है
वैमानिक देवता को आउखो, पचखाणी पिण बांधे। अपचखाणवंत पिण बांधै, बलि पचखाणा पचखाणी बांधे। शेष तेवीस दंडक नो आउखो, अपचखाणी बांधे। पचखाणी ने पचखाणापचखाणी नरकादिक आयु न साध।।82
कर्म-बंध होते ही विपाक नहीं होता। फल प्रदान करने की शक्ति का सम्पादन शनैःशनैः होता रहता है। चूल्हे पर रखने के साथ ही वस्तु पक नहीं जाती, समय लगता है। इसी प्रकार विविध कर्मों के पाक-काल की भी सीमा है जिसे अबाधाकाल के नाम से जाना जाता है। अबाधाकाल की समाप्ति के साथ ही कर्म अपना फल देना प्रारंभ कर देता है। कर्म फल की दो प्रकृतियां हैं- ध्रुवोदया, अध्रुवोदया।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया