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नारक आदि का उत्पन्न नहीं होना है। नरकादि किसी गति से निकलना उद्वर्तना है। नरकादि में न्युनतम (जघन्य) एक समय, अधिकतम (उत्कृष्ट) 12 मुहूर्त तक उपपात नहीं होता है। उसके बाद अवश्य ही कोई न कोई प्राणी उत्पन्न होता है। यह सामान्य रूप से नरक गति के विषय में कहा है। किन्तु जब रत्नप्रभा आदि एक-एक नरक के उपपात की विवक्षा की जाती है तब वह 24 मुहूर्त का भी होता है। अन्य गतियों के लिये भी इसी प्रकार ज्ञातव्य है। सिद्धगति का उपपात-विरहकाल उत्कृष्टत: छह माह का होता है। सिद्ध गति में उपपात है, उद्वर्तना नहीं है।
आयुष्य कर्म के बंधन का कारण शील और व्रत से रहित होना है। किस प्रकार का आचरण करने से कैसा जीवन प्राप्त होता है- जैनागमों में इसका निर्देश है। स्थानांग सूत्र में प्रत्येक प्रकार के आयुष्य बंध के चार-चार कारण निर्दिष्ट हैं। 2 नारकीय जीवन-प्राप्ति के कारण
1. महारम्भ (क्रूरतापूर्ण हिंसक कर्म) 2. महापरिग्रह (अत्यधिक संग्रह) 3. पंचेन्द्रिय वध (मनुष्य-पशु आदि का वध करना)
4. मांसाहार तथा मद्य आदि नशीले पदार्थों का सेवन तिर्यञ्च जीवन-प्राप्ति के कारण - 1. माया (माया, प्रवंचना) 2. गूढ माया (एक झूठ को छिपाने के लिए दूसरा झूठ बोलना) 3. असत्य भाषण
4. कूट तोल-कूट माप मनुष्य जीवन-प्राप्ति के कारण
1. सरलता (प्रकृति से सरल होना) 2. विनयशीलता (प्रकृति से विनीत होना) 3. करूणा, दया होना 4. अहंकार, मात्सर्य से रहित होना (ईर्ष्या न करना)
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया